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भारत-भारती


कठिनाइयों के मध्य अध्यवसाय का उन्मेष हो,
जीवन सरल हो, तन सबल हो, मन विमल सविशेष हो।
छूटे कदापि न सत्य-पथ निज देश हो कि विदेश हो,
अखिलेश का प्रदेश हो जो बस वह उद्देश हो॥१३७॥

आत्मावलम्बन ही हमारी मनुजता का मर्म हो,
षड् रिपुसमर के हित सतत चारित्र्यरूपी वर्म्म हो।
भीतर अलौकिक भाव हो, बाहर जगत का कर्म्म हो,
प्रभु-भक्ति, पर-हित और निश्छल नीति ही ध्रुव धर्म्म हो॥१३८॥

उपलक्ष के पीछे कभी विगलत न जीवन-लक्ष हो,
जब तक रहे ये प्राण तन में पुण्य का ही पक्ष हो।
कर्तव्य एक न एक पावन नित्य नेत्र-समक्ष हो,
सम्पत्ति और विपत्ति में विचलित कदापि न वक्ष हो॥१३९॥

उस वेद के उपदेश का सर्वत्र ही प्रस्ताव हो,
सौहार्द और मतैक्य हो, अविरुद्ध मन का भाव हो।
सब इष्ट फल पावें परस्पर प्रेम रखकर सर्वथा,
निज यज्ञ-भाग समानता से देव लेते हैं यथा॥१४०॥

तथास्तु