पृष्ठ:भारत भारती - श्रि मैथिलिशरण गुप्त.pdf/१९१

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विनय

( सोहनी )

इस देश को हे दीनबन्यो ! आप फिर अपनाइए,
भगवान् ? भारतवर्ष के फिर पुण्य-भूभि वनाइए।
जड़-तुल्य जीवन आज इसका विघ्न-बाधा-पूर्ण है,
हे रम्ब ! अव अवलम्ब देकर विघ्नहर कहलाइए ।।
हम मूक कि वा मूढ़ हों, रहते हुए तुझ शक्ति के !
माँ ब्राह्म, कह दे ब्रह्म से सुख-शान्ति फिर सरसाइए ।
सत्र बाहर और भौंतर रिक्त भारत हो चुका,
फिर भाग्य इसका हे विधाता ! पूर्व-सा पलटाइए।
तू अन्नपूण माँ ! रम है और हम भूखों मरे' !
कह ६ जनार्दन से जगाकर दैन्य-दुःख मिटाइए ।
यह सृष्टि-ौरव-राज-ग्रसित है ग्रह-इशा के ग्राह से,
हे मक्तवत्सल ! शुभ सुदर्शन चक्र आप चलाइए।।
माँ शङ्करी ! सन्तान तेरी हाय ! यों निरुपाय हो,
श्रीकण्ठ से कह दे कि हे हर, अब न और सताइए।
शून्य श्मशान-समान भारत हाय ? कब से हो चुका,
आकर कराल विपत्ति-विष से व्योमकेश, बचाइए ।।
सम्पूर्ण गुण-गौरव-रहित हम पतित अवनत हो चुके,
अत्रे छोड़ निर्गुणता विभो, सत्वर सगुण बन जाइए।
सीतापते ! सौतापते ! ! यह पाप-मार निहारिए, ।
अवतीर्ण होकर धर्म का निज राज्य फिर फैलाइए ।।