पृष्ठ:भारत भारती - श्रि मैथिलिशरण गुप्त.pdf/२३

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अतोह खण्ड था जिसने गियेां के था विरम लिया नहीं, थ धन्य सावित्री, सुकन्या और अंशुमती यहीं ।। ४२ ।। १—(क) सावित्री ने मन से सत्यवान् को जर लिया था। पीछे देवर्षि नारद से यह सुन कर कि चइ अल्पायु है, एक दई में ही झर जाया: सवित्री के माता-पिए ३ सवित्री को बहुत समझया कि वह किसी दूसरे को वरण करे । परन्तु वह अपने वचन पर अल रही और सत्यवान को ही वरण किया है और जब एक वर्ष बइ सत्यवान् ॐ नृत्यु हो गई तब सावित्री ने अपने पतिव्रत धर्म के बल से सराज को प्रर ३ ऋरके इले जिला लिया । (ख) सुकन्या राजा शयति की पुत्री थी । एक सय वन-विहार ऋरते हुए राजा शयत च्यवन ऋ५ के अश्रम के पास अपना डेर झाला । सुकन्या के पिता के साथ थी । व धून फिरत एक जगह ज्ञ। पहुँच । व उसने देखा कि एक मिट्टी का ढेर-सा बन रहा है। और उसमें दो तारे-ले चमझ रहे हैं । कौतूलवश होकर उसने उन दोनों तारे को काँटे से कुरेद डाला। कुईने पर उनमें से खून निकल पड़ा । खून देख कर छ। बहुत घबराई और अक़र अपने पिता को सब हाल कह सुनाया । राजा ने जय बहाँ जाकर देखा तो मालूम हुआ कि वे बृद्ध बदन ऋषि हैं । वरस तपस्या करते करते उन पर मिट्टी जड़ गई है। उनकी दोन आँखें कूद गईं और उनसे खून निकल रहा है । जा ने कहा किं महाराज ? चिन जाने मेरी पुत्री से यह अपराध हो यी है, कृपा करके क्षमा कीजिए । तुद महउँदमा च्यवन ने अपनी सेवा के लिए उसी पुन्नी को माँगा । यह सुन कर राजा बहुत घबराया किन्तु न्य बोली कि हे पिता. मैंने ही इनको कष्ट पहँचथ है अतः मैं ही इनकी सेवा करूंगी ! नि:नि सुकन्या च्यवन ऋषि को ब्याह दी गई और वह बड़े भकिसाव से उनकी सेवा करने लगी । यही नहीं, एक बार