पृष्ठ:भारत भारती - श्रि मैथिलिशरण गुप्त.pdf/२७

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अतीत खण्ड था गर्न नित्य निजत्व को घर दम्भ से हम दूर थे, थे धम्भीरु परन्तु हम सब काल सच्चे शूर थे । सब लोक-सुख हम भोगते थे बान्धर्वो के साथ में, एर पारलौकिक-सिद्धि भी रखते सदा थे हाथ में ।। ४८ ।। थे इथे समुन्नति के सुखद तुङ्ग शृङ्गों पर चढ़े। त्यो हो विशुद्ध विनीतता में हम सभी से थे बढे ।। भद-सिन्धु तरने के लिए आत्मावलम्बी धीर ज्ये, परमार्थ-सधन-हेतु थे अतुर परन्तु गभीर त्येt !! ४९ ।। यद्यपि सदा परमार्थ ही में स्वार्थ थे हम मानते, पर क से फल-कामना करना न हम थे जानते ।। विख्यात जीवन-व्रत हमारा लोक-हित एकान्त था, ‘आत्मा अमर है, देह भइवर, यह अटल सिद्धान्त था । १९५० हम दूसरों के दुःख के थे दुःख अपना मानते, हम मानते कैसे नहीं, जब थे सदा यह जानते-- जा ईश ऊत्त है हमारा दूसरों का भी वही, हैं के भिन्न परन्तु सत्रमें तत्त्व-समता हो रही' ।। ५१ }} विकते गुलाम न थे यहाँ, हममें न ऐसी नोति थो, सेवक-जने पर भी इमारी नित्य रहती प्रीति थी ।