पृष्ठ:भारत भारती - श्रि मैथिलिशरण गुप्त.pdf/३७

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अतीत खण्ड सर्वत्र अनुपम एकता को इस प्रकार प्रभाव था-- थी एक भाषा, एक मन था, एक सबका साथ थे । सम्पूर्ण भारतवर्ष मानों एक नगरी थी बड़ी, पुर और ग्राम-समूह-संस्था थी मुहल्लों की लड़ी ।। ३ ।। हैं वायुमण्डल में हमारे गीत अब भी गूंजते, निर, नदी, सागर, दर, गिरि, बन सभी हैं शूजते । देखो, हमारा विश्व में कोई नहीं अपमान था, नर-देव थे हम, और भारत ? देव-लोक समान था ।। ७४ ।। हमारी वि-बुद्धि पाण्डित्य का इस देश में सब ओर पूर्ण विकास था, बस, दुगुणों के प्रण में ही अज्ञता का वास था ? सब लोग तत्त्वज्ञान में संलग्न रहते थे यहाँ-- हाँ व्याध भो वेदान्त के सिद्धान्त कहते थे वहाँ ! ।। ७५ ।। जिस की प्रश्र के सामने रवि-तेज भी फीका पड़ा, अध्यात्म-विद्या का यहाँ आलोक फैला था बड़ा । मानस-कमल सबके यहाँ दिन-रात रहते थे खिले, मानों सभी जन ईश की ज्योतिछटा में थे मिले । ०६६ समझा प्रथम किसने जगत में गूढ सृष्टि-महन्थ को ? जीना कहो किसने प्रथम जीवन-मरण के तत्व को ? आभास ईश्वर-जीव का कैवल्य तक किसने दिया है। सुनलो, प्रतिध्वनि हो रही, यह कार्य प्राय ने किया। ७७ ।। $ व्ध ता ।।