पृष्ठ:भारत भारती - श्रि मैथिलिशरण गुप्त.pdf/४४

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স্বাহা धर्मशास्त्र रचते कहीं मन्वादि ऋषि वे धर्मशास्त्र न जे यहाँ, कानून ताजीत जैसे आज वे बनते कहाँ ? उन संहिताअों के विमल वे विधि-निषेध विधान हैं या लोक में, परलोक में, वे शान्ति के सेवापान हैं। ९२ ।। नीति निज नीति-विद्या का हमें रहता यहाँ तक गर्न थाहम अप जिस पथ पर चले सत्पथ वही है सर्वथा । सामान्य नीति समेत ऐसे राजनैतिक ग्रन्थ हैं। संसार के हित जो प्रथम पुण्याचरण के पन्थ हैं ।। ९३।। १- बहुत लोगों की राय है कि ताज़ीरात हिन्द' की अनेक बातें मनुस्दति आदि से ली गई हैं । अस्तु, लेखक के कहने का अहाँ पर यही मतलब है कि कानून का ज्ञान भी यूरोपवालों को पहले भारतवासियों के द्वारा ही प्राप्त हुआ । जैसा कि एक पिछले नोट में सिद्ध किया जा चुका है। देविनोद नं० २ ४ २५ । ३---इस पत्र का पूर्वार्द्ध निम्न लिखित श्लोक को लक्ष्इ करके लिखा वयमिह पदवियां तर्कमान्वीक्षिक वा, थई पथि दिपों व चर्तयामः स पन्थाः ।। उदयति दिशि यस्यां भानुमान है। पूर्वा, न हि तरणिस्दीते दिकूपराधीनधृतिः ।। उदयनाचायचे ।। अर्थात् कथाकरण, तर्क और नीतिया में जिस और हम चल पड़े वह सन्मार्ग है । जिस दिशा में सूर्योदय हो ही पूर्व दिशा है, दिशा के अधीन होकर सूर्य अदित नहीं होता ।