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भारत-भारती




वहु अभ्रभेदी स्तूप अव मी उच्च होकर कह रहे--
संसार के किस शिल्प ने जल-पात इतने हैं सहे ?
शत शत गुहाएँ साथ ही शुज़ार करके कह रहीं---
प्राचीन ही वा शिप इतना कौन है ? कोई नहीं ।। १११ ॥

हैं जो यवन राजत्व के वै कीति-चिन्ह बढ़ चढ़-
में मी अधिकतर हैं हमारे शिल्पिये के ही गढ़ ।
अन्यत्र भी से है यवन-कुल की बिपुल कारीगरों,
है किन्तु भारत के सदृश क्या वह मनोहरता भरी ? ॥११२।।

चित्रकारी

निज चित्रकारी के विषय में क्या कहें, क्या क्रम रहा;
प्रत्यक्ष है या चित्र है, ये दर्शकों को भ्रम रहा।
इतिहाँस, काव्य पुराण, नाटक, अन्य जितने दीखते,
सब से विदित है, चित्र-रचना थे यह सब सीखते ।।११३॥

होती न यदि वह चित्र-विद्या आदि से इस देश में---
तो भैय्यं धत्ते किस तरह प्रेमी विरह के क्लेश में ?
अब तक मिलेगा सूक्ष्म वर्णन चित्र के प्रति भाग का,
साहित्य में भी चित्र-दर्शन हेतु है अनुराग का ।। ११४ ।।

थी चित्रकार यहाँ स्त्रियाँ म चिन्नरेखा-सी कभी,
अङ्कन कुशल नायक हमारे नाटक में हैं सभी ।
लिब कहीं दुष्यन्त हैं भोली प्रिया की छवि भली,
करती कहीं प्रिय-चित्रे-रचना प्रेम से रत्नावली ।। ११५ ॥