पृष्ठ:भारत भारती - श्रि मैथिलिशरण गुप्त.pdf/५८

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भारत-भारत अतो सु-चेतनता जिन्हें सुन कर जड़ों में भी हो ! अाई कहाँ से गान में वे रा-रादिनियाँ कहो ? हैं सब हमारी ही कलाएँ उलति और मनहरी, | श्री कौतुके में भी हमारे ऐन्द्रजालिकता भरी ॥ १२१ ।। अभिनय । अभिनय-कला के सूत्रधर भी आदि से ही अर्घ्य हैंप्रकटे भरत मुनि-से यहाँ इस शास्त्र के प्राचार्य हैं। संसार में अब भी हमारी है अपू शकुन्तला, है अन्य नाटक कौन उसका साम्य कर सकता मला ११११२२११ १--(क) जिसने संस्कृत में इस ( शकुन्तला ) नाटक को पढ़ा है, वह, हिन्दू ही नहीं चाहे कोई भी क्यों न हो, उसकी यह सम्मति होगी कि नम्र और कोमल हृदयवली बनवासिनी शकुन्तला से बढ़कर दु और मनोहर कल्पना मनुष्य की लेखनी से कभी नहीं निकली । । र, सी. दत्त । (ख) शकुन्तला वह चीज है जो यौवनावस्था में उत्पन्न हुई अनुरोगरूपी कली को प्रौढ़ावस्था में उत्पन्न हुए भाच रूपी फल से मिलई देती है। शकुन्दला वह चीज है जो पृथ्वी का स्वर के साथ कविवर गेट । | ( 1 ) जिस समय सर विलियम जौन्स ने शकुन्तला का अनुवाद अँग्र जी ने किया था उस समय तक योरपवाले भारतवासि को निरा असभ्य समझते थे । किन्तु इस अनुवाद नै घोरप के थिइन की अखे खोल दीं । शकुन्तला की कविता, उसके पात्रों का वरिञ, उसकी भाव-अब्णता देख कर वे लोग मुग्ध हो गधे ।।