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अतीत-खण्ड


हमारी वीरता
थे कम्वोर कि मृत्यु का भी ध्यान कुछ धरते न थे,
थे युद्धवीर कि काल से भी हम कभी डरते न थे ।
थे दानवीर कि देह कर भी लोभ हम करते न थे,
थे धम्मवीर कि प्राण के भी मोह पर मरते न थे!।।१२३।।

घे सूर्यवंशी, चन्द्रवंशी वीर थे कैसै वो,
जो थे अकेले ही मचाते शत्रु -दल में खलबली ।
होते न वे यदि चक्रवर्ती भूप दिग्विजयी यहाँ-
होते मला फिर 'अश्वमेध’ कि ‘राजसूय' कहो कहाँ ?॥ १२४ ।।

थे भीम-तुल्य महावली, अजुन-समान महारथी,
श्रीकृष्ण लीलामय हुए थे श्राप जिनके मारथी ।
उपदेश गीता का हमारा युद्ध का हौ गीत है,
जीवन-समर में भी जनों को जो दिलाता जीत है ।। १२५ ।।

इम थे धनुर्वेदज्ञ जैसे और चेसा कौन था ?
जो शब्द-वेधी बाण छोड़े शूर ऐसा कौन था ?

शकुन्तला के अँगरेज़ी अनुवाद के भी अनुवई जन और फेचे आदि अनेक भाषाओं में होगथे, जिन्हें पढ़कर उन उन देश ॐ वासिय ने भी उसकी भएता एकत्र में स्वीकार की । वे यह भी जान गये कि जिस ग्रीक के साहित्य के वे लोग इतने कायल हैं, संस्कृत के साहित्य उससे मर किसी किसी अंश में आगे बढ़ा हुआ है। प्राचीनता में तो संस्कृत-साहित्य की बराबरी किसी भाषा का साहित्य नहीं और सकता है