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भारत-भारती


देकर विदा युद्धार्थ पति के प्रमवल्ली-सी खिली,
यदि फिर न भेंट हुई यह तो स्वर्ग में फट जा मि ।।१३२।।

वह अमरिक सिद्धान्त स औदार्य-पूर्ण पवित्र था---
थी शुद्ध में ही शत्रुता, अन्यन्न बैरी मित्र था !
जथ-लोभ में भी छल-कपट ने न पाता मास था,
प्रतिपक्षियों के भी मारे सत्य का विश्वास था ।।१३३।।

पाते न थे जय युद्ध में ही इस सुयश के साथ में,
इन्द्रिय तथा अन्त भी निरन्तरे थे हमारे हाथ में ।।
हम धम्म-धनु में भक्ति-शर भी छोड़ने में सिद्ध थे,
अतएव अक्षर-लक्ष्य भी करते निरन्तर विद्ध थे ।।१३४॥

यद्यपि रहे हम और ऐसे-वइव के जय कर सकें,
ऐसे नहीं थे जो समर में शक्र का भी डर सुक' ।
परराज्य के तो थे सदा हुस तुच्छ तृण-सा मानते,
लाचार होकर ही कभी लङ्का-सदृश र ठानते ।।१३५।।
शक्ति का उपयोग ।
अन्या-अत्याचार करना तो किसी पर दूर है।
जिसका किया हमने किया उपकार है। भरपूर है ।
पर पीड़ितों का त्राण कर वो दुःख हम खोते नही--
तो आज हिन्दुस्तान में ये पारसी होते नहीं। ।।१३६॥

१---पारसियों का कारस में इज्य था । तीसरे इसदगिर्द के समय में अर वालों ने उन पर चढ़ाई की है उनके मन्दिर अादि सोढ़ फोड़ डाले । मरो अ' मुसलमान बनो, यही शर्त थी । लाखौं पारसी मरे गये, करोड़ों