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अतीत-खण्ड




वह अान्तरिक आलोक इस आलोक में ही मिल गया,
रवि का मुकुट धारण किया, स्वाधीन भारत खिल गया ।।१५२।।

गोपालन

जो अन्य धात्री के सदृश सबको पिलाती दुग्ध हैं,
(हे जे अमृत इस लोक को, जिस पर अमर भी मुग्ध हैं !)
वे चैनुए प्रत्येक ग्रह में हैं दुही जाने लगी-
या शक्ति की नदियाँ वहाँ सन्न लहराने लग ।।१५३।।

घृत आदि के आधिक्य से बल-वी का सु-विकास है,
क्या आज कल का-सा कहीं भी व्याधियों का वास है ?
है उस समय गो-वंश पलता, इस समय मेरता वही !
क्या एके हो सकती कभी यह और ह भारत मह ।।१५४।।

होमाग्नि

निर्मल पवन जिसकी शिला को तनिक चञ्चल कर उठी-- होमाग्नि जल कर द्विज़-गृहों में पुण्य-परिमल भर उठी ।।
प्राची दिशा के साथ भारतभूमि जगमग जरा उठी,
आलस्य में उत्साह क्री-सी अारा देखो, ला उठी ।।१५५।।

देवालय

तर-नारियों का मन्दिर में आगमन होने लगा,
दर्शन, श्रबण, कीर्तन, मनन से मग्न मन होने लगा है।
ले ईश-चरणामृत मुदित राजा-प्रजा अति चाव से-~~