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भारत-भारती


विचार
वह मद्र-भारत सर्वदा भू-लोक-नेता सिद्ध है।
संसार में संध से अधिक स्वाधीनचेता सिद्ध है।
उन्मादिनी माया स्वयं उसके भुला पानी नहीं,
पुनरागमन की बन्धता भी है उसे माती नहीं ।।१८७।।

 है लक्ष्य केवल मुक्ति ही उसके अतुल उद्दश को,
है दास भी तो वह उसी अँकुण्ठपति विश्वेश को ।
साक्षी स्वयं इस बात के उसके वही सुविचार हैं-
संसार के साहित्य के जे सार हैं, आधार हैं ।। १८८ ।।

महत्त जै? पूर्व में हमके अशिक्षित या असभ्य बता रहे,
वे लोग या त अझ हैं थी पक्षपात जता रहे ।
यदि इस अशिक्षित थे, कई तेा सभ्य वे कैंस हुए ?
वे आप ऐसे भी नहीं थे आज हम जैसे हुए ।। १८९ ।।

ज्य व्यां प्रचुर प्राचीनता की खोज बढ़ती जायगी,
त्यों क्यों हमारा उदता पर आए चढ़ती जायगी।
जिस और देखेंगे हमारे चिन्ह दर्शक पायेंगे;
हमकेा गया वत:येंगे, जव जो जहाँ तक जायँगे ।। १९०।।

पाये हम से ते प्रथम सबने अखिल उपदेश हैं,
हमने उजड़ कर मी बसाये दूसरे बहु देश हैं।