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भारत-भारती


अवनति की प्रारम्भ
इस भाँति जब जग में हमारी पूर्ण उन्नति हो चुकी,
पाया जहाँ तक पथ वहाँ तक प्रगति की गति हो चुकी ।
तब और क्या होता है हमारे चक्र नीचे के फिरे,
जैसे उठे थे, अन्त में हम ठीक वैसे ही गिरे ! ।। १९५ ।।

उत्थान के पीछे पतन सम्भव सदा है साथ,
औंढत्व में पीछे स्वयं वृद्धव होता है यथा ।।।
हा ! किन्तु अवनति भी हमारी है समुन्नति-सी बड़ी,
जैसी बढ़ो की पूर्णिमा वैसी अमावास्या पड़ी ! ।। १९६ ।।

पैदा हुआ अभिमान पहले चित्त में निज शक्ति का,
जिससे रुका वह् न त सत्वर शील, श्रद्धा, भक्ति की ।
अचिन्तता बढ़ने , अनुदारता आने लगी; पर-बुद्धि जागी,
श्रीति भागी, कुमति बल पाने लगी ।। १९७ ।।

फिर स्वार्थ ईध्य-द्वेष का विष-वीज जो बोने लगा,
दुर्भावना के वारि से उर वह बड़ा होने लगः ।।
थे फुट के फल अन्त में ये फूट कर फलने लगेखाकर जिन्हें, जाँत हुए ही, हम यहाँ जलने लगे ।। १९८ ।।

महाभारत
क्या देर लगती है विराड़ते, जब बिगड़ने पर हुए ?