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अतीत खण्ड




अरखिर महाभारत-समर का साज मुज ही तो गया,
ढक्का हमारे लाश कर बेरोक बज हो तो गया ! ।।१९९।।

हाँ सोचनीय, परन्तु, ऐसा कह भी होगा नहीं,
तू ही बलर हे काल ! ऐसा हाल देखा है कहाँ ?
हा ! बन्धुओं के हां करों से बन्धु कितने कट मरे,
यह भव्य भारत अन्त में बन हो या मरघट हरे ।। २००।।

इल सनाशी युद्ध का वह दृश्य कैसा घोर था,
उस ओर था यदि पुत्र तो ड़ता पिता इस अरि था !
सन्तान ही के रक्त में यह मातृभूमि सनी यहाँ,
उस स्वर्ग की-नी चाटिका की हाय ; राख बनी यह ।।२०१।।

अायों को आक्रमण
इस भाँति जब दलहीन होकर देश ऊजड़ हो गया;
फिर वह हुआ जिससे कि अब सर्वस्व अपना खो गया ।
घुस कर शकादि अनाय-बाण निर्भय यहाँ बढ़ने लगे,
नि:शक्त देख, शृगाल चायल सिंह पर चढ़ने लो !।। २०२।।

अवतार हिसा बढ़ी ऐसा कि मानव दानवों से बढ़ गये,
भू से न भार सहा बाया, अवचार ऊपर चढ़ गये ।
सहसा हमारा यह पतन देखा न प्रभु से भी राया,
तब शाक्य मुनि के रूप में प्रकटी दयामय की दया' ।। २०३।।।