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अतीत खण्ड


भोज

विद्यानुरागी मोज मी केस सदाशय भूप था---
विख्यात कवियों के लिए जो कल्पवृक्ष-स्वरूप था ।
साहित्य के उद्यान में वह पुण्यकाल वसन्त है,
जे जे प्रसून खिड़े कि अव मी सुरभि-पूर्ण दिगन्त है ।।२१५।।
विकास में हास
पर ठीक सा ही हमारा यह प्रसिद्ध विकास है----
जैसा कि बुकने के प्रथम चढ़ता प्रदीप-प्रकाश है ।
हो बौद्ध लक्ष्य-भ्रष्ट सहसा घर नास्तिक ही रहे,
सँभले न फिर हम अय्य भी, इस मॉनि विषयों में यह! ।।२१६।।

यद्यपि सनातन धर्म की ही अन्त में जय जय रही,
अगवान शङ्कर ने भगा दी बौद्ध-भ्रान्ति भयावही ।
पर हाय ! हम चेते नहीं हँस कर कलह के जाल में,
क्या फूट को जड़ फलती हैं शूट कर पाताल में ! ।।१७।।

बढ़ने लगा विग्रह परस्पर, क्रान्तियाँ होने लीं,
अनुशरता मय स्वार्थ के वश भ्रान्तिय होने का ।
जिसमें हुआ कुछ बल वह अधिकार पर मरने लगा,
सौमाग्य भय खाकर भग, दुभाग्य जय पाकर जग! ।।२१८।।

बहु तुच्छ रजवाड़े बने, साम्राज्य सब कट छैट गया;
थों भूरि भागों में हमार दुत मारत देंट था !

१ स्वामी शङ्कराये।