जो एक अनुपम रत्न था परिणत कणों में हो गया,
वह मूल्य और प्रकाश सारा टूटते हो खा गया ।।२१९॥
आचार और विचार तक ही यह विभेद बढ़ा नहीं,
बहु भिन्न भाषाएँ हुई, फेलो विषमता सब कहीं।
आलाप करना में परस्पर क्लेश हमकेा हो गया,
निज देश में हो हा विधे ! परदेश हमके ही बाया ।।२२०।।
मुसलमानों का प्रवेश
देखो न होगी ऐक्य को ऐसी किसी ने छिन्नता,
बढ़ कर भद्दा मतभिन्नता फैली भयङ्कर खिन्नता ।।
अारित्र, अलें इसलाम-दल के हम बुला कर ही रहे,
स्वातन्त्र्य के, मानों सदा को, हम सुला कर ही रहे ।।२२१।।
जयचन्द्र और पृथ्वीराज
क्या थे यवन, पारों ने प्रश्रय यदि अधम जयचन्द से ?
जयशील पृथ्वीराज हारे अन्त में छल-छन्द से ।
हा ! देश का दीपक बुझा, भीप अँधेरा छा गया;
निज कम्र्म के फल-भोग का वह काल आगे आ गया ।।२२२।।
क्या पा लिया जयचन्द ने निज देश का हित हार के ?
हैं कह रहें कन्नौज के ने सौ-धुस्स पुकार के---
जर्जर हुए भी आज तक हम इस लिए हैं जो रहे-
अव भ नजर हो जायें वे विद्वेष-विष जी पी रहे ।।२२३।।