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श्रीहरि:
वर्तमान खण्ड


प्रवेश


जिस लेखनी ३ है लिखा उत्कर्ष भारतवर्ष का,
लिखने चली अब हाल वह उसके अभित अपकर्ष का ।
जो कोकिला नन्दन विपिन में प्रेम से गाक्षी रहा,
इावाग्नि-दुग्धारण्य में रोने चली है अब वहां !!! ।। १ ।।
वर्तमान खण्ड
यद्यपि हताहत पात में कुछ साँस अर्थ म आ रही,
पर सोच पूर्वापर दशा मुंह से निकलता है यही
जिसकी अलौकिक कति से उज्ज्वल हुई सार महीं,
था ज? जात का मुकुट, है क्या हाय ! यह भारत वही ।। २ ।।

भारत, कहीं तो आज तुम क्या हो वही भारत अहो !
हे पुण्यभूमि ! कह गई है वह् तुम्हारी श्री कहो ?
अब कमल क्या, जल तक नहीं, सूर-मध्य केवल पङ्क है;
वह राजराज कुवेर अद हुई ! रङ्क को भी रङ्क है ! ।। ३ ।।