पृष्ठ:भारत भारती - श्रि मैथिलिशरण गुप्त.pdf/९७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८७
वर्तमान खण्ड

दारिद्रय


रहता प्रयोजन से प्रचुर पूरित जहाँ धन-धान्य था,
जो ‘स्वर्ण-भारत' नाम से संसार में सम्मान्य था ?
दारिद्र्य दुद्धर अब वहाँ करता निरन्तर नृत्य हैं,
जीविका-अवलम्व बहुधा मृत्ये का ही कृत्य है !! ।। ९ ।।

देखो जिधर अब बस उर ही है उदासी छा रही,
काली निराशा की निशा सव ओर से हैं आ रही ।
चिन्ता-तरङ्ग चित्त को बेचैन रखती हैं सदा,
अव नित्य ही आती यहाँ पर एक नूतन आपदा ।।१०।।
दुर्भिक्ष्
दुर्भिक्ष मान देह धर के घूमता सब ओर है,
हा ! अन्न ! ! ! हा ! अन्न का रव गूंजता घनघोर है ?
सब विश्व में सौ वर्ष में, रण में भरे जितने रे !
जल चौगुने उनले यहाँ दस द मैं भूख अरे !! ।।११।।

उड़ते प्रभञ्जन से यथा तप-मध्य सूखे पत्र हैं,
लाखों यहाँ भूखे भिखारी धूमते सर्वत्र हैं।

१-कुल दुनियाँ की लड़ाइयों में सौ वर्ष के अन्दर ( १७९३ से १९०० तक) सिौ पचास लाख अली मारे गये हैं। पर हमारे हिन्दुस्तान में केवल दस वर्ष में ( १८९१ से १९०१ तक) अकाल और भूख के सारे एक करोड़ नब्बे लाख मनुष्यों ने प्राण त्याग किये है।

हिन्दो ग्रन्थमाला, मई सन् १९७८ ऋछ ९ ।