का कर्ता धर्ता था। उसने मूलराज से बाप की गद्दी पर बैठने
के लिए १८ लाख की रक़म बतौर नज़राने के माँगी। दीवान
मूलराज ने एक नियत समय के अन्दर यह रक़म पूरी कर देने
का वादा किया। किन्तु इसके बाद ही अंगरेज़ों के प्रताप से
लाहौर दरबार के अन्दर नित्य नए उपद्रव खड़े होने लगे। कुछ
दिनों तक यह भी पता न चलता था कि राज की वास्तविक
वाग किसके हाथों में है,अंगरेज़ों के या सिखों के। मूलराज ने ऐसी
स्थिति में १८ लाख रुपए नज़राने के भेजना उचित न समझा।
पहले सिख युद्ध और लाहौर की पहली सन्धि के बाद लालसिंह ने
अपने भाई भगवानसिंह के अधीन एक सेना मूलराज को ज़ेर करने
और उससे यह रक़म वसूल करने के लिए मुलतान भेजी। मालूम
होता है कि अंगरेज़ और लालसिंह दोनों मूलराज को हटा कर
उसकी जगह भगवानसिंह को मुलतान की दीवानी देना चाहते थे
किन्तु भगवानसिंह की सेना को मूलराज के मुक़ाबले में हार खाकर
लौट आना पड़ा। फिर भी मुलतान प्रान्त का एक इलाक़ा जुन्नक
(?), जिसको आय आठ लाख रुपए सालाना थी, दीवान मूलराज
से छीन कर भगवानसिंह को दे दिया गया।
कुछ दिनों बाद दीवान मूलराज को हिसाब साफ़ करने के लिए लाहौर बुलाया गया। मूलराज को सन्देह हुआ, फिर भी वह लाहौर आया। सब बातें तय हो गई। मूलराज अपने पद पर बहाल रक्खा गया और मुलतान लौट गया।
इसके बाद भैरोंवाल की सन्धि हुई। इस सन्धि को चन्द महीने