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भारत में अंगरेज़ी राज

१२४८ भारत में अंगरेजी राज दिया जाय । किन्तु भैरोंघाल की सन्धि के अनुसार दरबार की अधिकांश सेना बरखास्त की जा चुकी थी। उसकी जगह लाहौर, जालन्धर और फ़ोरोज़पुर में कम्पनी की सेनाएँ रहती थीं। इन अंगरेज़ी सेनाओं का खर्च लाहौर द्बार से लिया जाता था, और सनिध में यह तय हो चुका था कि देश के अन्दर के विद्रोहों को दमन करने और शान्ति कायम रखने में ये सेनाएँ सदा दवार को मदद देंगी। इस सहायता के बदले में ही लाहौर द्रबार ने इन सेनाओं का खर्च देना स्वीकार किया था। इस अवसर पर लाहौर पवार ने रेजिडेण्ट से प्रार्थना की कि कम्पनी की इन सेनाओं में से जितनी आवश्यक हों, मुलतान के विद्रोह को दमन करने के लिए भेज दी जायें । रेज़िडेण्ट मे, भैरोंघाल की सन्धि का साफ़ उतलहन कर कम्पनी की उन फ़ौ में से जो वास्तव में लाहौर दरबार ही की फ़ौजें थीं, एक भी सिपाही मुलतान भेजने से इनकार कर दिया। साथ ही उसने दरबार को यह धमकी दी कि यदि द्रवार की निजी सेना मुलतान क के विद्रोह को दमन न कर सकी तो पजाब का राज ज़ब्त कर लिया जायगा । वास्तव में रेज़िडेण्ट करी को मुलतान के विद्रोह से बढ़ कर वहाना डलहौजी को वास्तविक इष्टसिद्धि का न मिल सकता था । लाहौर, जालन्धर । और फीरोज़पुर की फ़ौज वास्तव में लाहौर द्वार की सहायता के लिए नम थीं, वरन् उसके सर्वनाश के लिए रक्खी गई थीं । रेजिडेण्ट करी की जिद्द पर लाहौर द्वार ने खबार चतरसिंह के पुत्र का शेरसिंह को द्रवार की सेना सहित मूलराज को