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भारत में अंगरेज़ी राज

१३३८ भारत में अंगरेजी राजें और निज़ाम को हर तरह की सहायता देना है । वरार के उपद्रवों को शान्त करने के लिए निजाम पर जोर दिया गया कि वह वरार दे के अन्दर विशेष सेना रखे यह नई सेना भी कम्पनी ही की थी, इसके भी अफ़सर अंगरेज थे और अंगरेजों हो के बह नियन्त्रण में ‘थी, फिर भी इसका खर्च निज़ाम पर डाला गया। इन सब का परिणाम यह हुआ कि निज़ाम का ख़र्च और उसकी मुसीबतें दोनों वढ़ती चली गई। निज़ाम की सवसीडीयरी सेना का खर्च अदा करने के लिए मुसीबतें निज़ाम को धन की कमी होने लगी । हैदराबाद के अन्ट्र कई नई अंगरेज़ी कम्पनियाँ खोली गई जो निज़ाम को कर्ज देने के लिए राजी होगई। मजबूरन इन अंगरेज वैक्सि कम्पनियों के निज़ाम को वार बार कर्ज लेना पड़ा, और अन्य मुसीबतों के साथ साथ निजाम का कर्जा भी बढ़ता चला गया। ' इन विदेशी साहूकार कम्पनियों का धन भी यदि सब नहीं तो अधिकतर हैदराबाद ही से कमाया हुआ था। ६ जून सन् १८५१ को लॉर्ड डलहौजी ने निजाम के नाम एक अत्यन्त धृष्टतापूर्ण पत्र लिखा1 निज़ाम के राज बरार का अपहरण में थोड़े से ऐसे किले रह गए थे जो दरवार के बफ़ादार अरव सिपाहियों के हाथों में थे । ये वीर आरव कहीं भी 'अंगरेजों के काबू में न आए थे । लॉर्ड डलहौजी ने निजाम को धमकी दी कि फ़ौरन् इन अरवों को बरखास्त कर दिया जाय । और यद्यपि कम्पनी का एक पैसा खर्च भी निजाम के जिम्मे न था,