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भारत में अंगरेज़ी राज

१३७८ भारत में अंगरेजी राज विप्लव के ठीक बाद पूबक पत्रिका लन्दन से प्रकाशित हुई। इसके बाद इस भारतीय क्रान्ति और उसके कारणों के ऊपर पर असंख्य पुस्तक, पत्रिकाएँ और लेख इलेलिस्तान और भारत में प्रकाशित हुए हैं किन्तु किसी लेखक को भी पूक पत्रिका के गम्भीर इलज़ामों को असत्य कहने का साहस न हो सका। इसी पत्रिका का अंगरेज़ सम्पादक मैलकम लुइन, जो मद्रास उप्रोम कोर्ट का जज औौर मद्रास कौन्सिल कां. अंगरे सदस्य रह चुका था, अपने तजरुबे से भारत शासकों का सलूक बासियों के साथ उस समय के अंगरेज़ शासकों के सलू को वर्णन करते हुए भूमिका में लिखता है ‘समाज के सदस्यों की हैसियत से हम दोनों, अर्थात् गरेगा और हिन्दोस्तानी एक दूसरे से अनभिज्ञ हैं, हमारा एक दूसरे से बही सम्बन्ध रहा है जो कि सालिकों और गुलामों में होता है। हमने हर एक ऐसी ची पर अपना अधिकार जमा लिया है जिससे कि देशवाखिों का जीवन सुखमय हो सकता था, प्रत्येक ऐसी वस्तु जो कि देशवासियों को समाज में उभार' सकती थी या मनुष्य को हैसियत से उन्हें ऊँचा कर सकती थी, हमने उनसे छीन ली है । हमने उन्हें जति अष्ट कर दिया है। उनके उत्तराधिकार के नियमों को हमने रद्द कर दिया है, उनकी विवाह की संस्थाओं को हमने बदल दिया है । उनके धर्म के पवित्रतम रिवारों की हमने अवहेलना की है । उनके मन्दिरों की जायदादेंहमने ज़ब्त कर ली हैं । अपने सर कारी उल्लेख calcutta the 18th August, 1857, published fro London, by Biward Staniord 6 Chating Cros.