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१५८८
भारत में अंगरेज़ी राज

१५८८ भारत में अंगरेज़ी राज बयान करते हुए पक अंगरेज़ अफ़सर जो संग्राम में शामिल था। लिखता है के . “वास्तव में इसके याद जो कुछ हुआ उसे लिखते हुए मुझे अत्यन्त लजा प्राती है । लढ़ाई का मैदान छोड़ कर हमने जर्केल से भागना शुरू किया । शत्रु हमें घरयर पीछे से पीटता रहा । हमारे सिपाही प्यास से सर रहे थे । एक निकृष्ट गन्दे छोटे से पोखर को ख़ कर वे यरा कर उसकी श्रर लपके । इतने में कुंघरसिंहू के सवारों ने हमें पीछे से आ दवाया । इसके पश्चात् हमारी जिएलत को कोई हद न रहो, हमारी आपत्ति चरम सीमा को पहुँच गई । हममें से किसी में शर्म तक म रही । जहाँ जिसको कुशल दिखाई दी, वह उसी चोर भागा । अफ़सरों की साझाओं की किसी ने परवा न की 1 व्यवस्था औौर बायद का अन्त हो गया । चारों चोर ग्राहों, श्रों ऑौर रोने के सिवा कुछ सुनाई न देसा था । मार्ग में श्रन के गिरोह के गिरोह मारे गरमी के गिर गिर कर मर गए । किसी को दवा मिल सकना भी असम्भव था, क्योंकि हमारे अस्पताल पर कुंवरसिंह ने पहले ही क़ब्ज़ा कर लिया था । कुछ वहीं गिर कर मर गए, शेप को शत्रु ने काट डाला । हमारे कार डलियाँ रख रख कर भाग गए। सय घबराए हुए थे, सय डरे हुए थे । सोलह हाथियों पर केवल हमारे घायज साधी लदे हुए थे। स्वयं जनरल लीगंण्ड की छाती में एक गोली लगी और वह मर गया ! हमारे थे। सिपाही अपनी जान लेकर पाँच मील से ऊपर दौड़ चुके थे 1 उनमें यूब अपनी बन्दूक उठाने तक की शक्ति न रह गई थी 1 सिखों को वहाँ की धूप की आदत थी। उन्होंने हमसे हाथी छीन लिए औौर हमसे नागे भाग गए। गोरों का किसी ने साथ न दिया । १६६ गोरों में से केवल ८० इस भयडूर संहार से