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सन् ५७ के स्वाधीनता संग्राम पर एक दृष्टि

सन् ५७ के स्वाधीनता संग्राम पर एक दृष्टि १६६१ स्बम कब तक पूरे हो पाते, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता । दूसरी बात यह है कि सन ५७ का समय राजघराने और उच्च कुलों के सान, उनको सत्ता औौर कुलीनता के टच्च कुलों समान अभिमाम का समय था। इन कुल ही के नाम का पर सन् ५७ का युद्ध शुरू हुआ । दिल्ली में बख़्त न, लखनऊ में मौलवी ग्रहमनाककानपुर में नजीमुल्ला खाँ औौर महाराष्ट्र में तात्या टोपे को केवल इस लिए य6च्छ सफलता न मिल सकी, क्योंकि वे किसी राजबुल में पैदा न हुए थे । सन् ५७ की सफलता के बाद सम्भव है कि, एक तो भारत के राजकूल में परस्पर मेल कायम रहता इतना सरल न होना जितना सम्राट बहादुरशाह ने राज पूताना व्यादि के राजाओं के नाम अपने पत्र में आशा की थी, श्रीर दूसरे जनता की सता, जनता की शाति और जनता की राजनीति के दिन भारत से और अधिक दूर चले गए होते । तीसरी बात यह है कि यद्यपि एक छोर बहादुरशाह, हजरत सहल, कुंवरसिह घोर लक्ष्मीबाई जैसों के चित्र हिंसा ऑौर अहिंसा और चरित्र और दूसरी श्रोर कैनिऊंमीत , , हैयलॉक और हडसन जैसों के चित्र और चरित्र, दोनों में साफ़ श्रन्तर दिखाई देता है, यद्यपि एक के ऊपर भारत के उच्चतर नैतिक श्राद्यों और दूसरे के ऊपर पश्चिम के होम प्रार्थों की छाप साफ़ दिखाई देती है, फिर भी जिन धन से सन् ५७ के क्रान्तिकारी अंगरेजों का मुकाबला कर रहे थे, वे हिंसात्मक साधन थेजिन्हें ,