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भारत में अंगरेज़ी राज

१६६२ भारत में अंगरेजी राज जो ग़रज़ भारतवासियों को ईसाई बनाने या मुसलमानों को दाने से थी वही भारत में अंगरेजो शिक्षा के प्रचार से थी । लार्ड’ मैकॉले इस शिक्षा का सब से ज़बरदस्त हामी था और उसके असली विचारों का ज़िक्र हम ऊपर शिक्षा के अभ्याय में कर चुके हैं । भारत को विचित्र स्थिति में देश को ईसाई बनाने का प्रयत्न अधिक न चल सका औौर म अधिक खुले तौर पर उसे शासन नीति का एक अंग बनाया जा सका । किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि अंगरेज़ो शिक्षा ने एक ख़ासी श्रेणी ऐसे लोगों की पैदा कर दी है, जो अपनी रोज़ी के लिए अंगरेजी राज पर निर्भर हैं, जो उस राज के विशेप स्तम्भ हैं, जिनके रहन सहन और भारतीय जनता के रहन सहन में बहुत बड़ा अंतर पैदा हो गया है, और जिनमें सामूहिक दृष्टि से राष्ट्रीयता या राष्ट्रीय मान के भावों का क़रीब क़रीवं अभाव है । आज कल की यूरोपियन राजनीति में किसी देश पर शासन करने का मतलब ही उस देश से अधिक से -हिन्दोस्तान की अधिक धन खचना है। भारत की लूट’ से ही के उपजाऊ शक्ति को ' उन्नति देना इङलिस्तान के और विशेष कर काशायर के कारखाने चलेजिसका ज़िक्र एक पिछले अध्याय में किया जा चुका है । सन् ५७ के बाद भारत की उपजाऊ श कि को उन्नति देने ( Development of the resources of India y’ का विशेष चरचा सुना जाने लगा 1 इसके ट्रांस ख़ास उपाय सोचे गए ।