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भारत में अंगरेज़ी राज

४० भारत में अंगरेजी राज ३० नवम्बर को सवेरे, जब कि अंगरेज़ी तोपों से गोलेबारी बराबर जारी थी और उनके जवाब में गोरखा बन्दूको की गोलियाँ भी लगातार अपना काम कर रही थीं, एकाएक दुर्ग के अन्दर की बन्दूकें और कमाने चन्द मिनिट के लिए शान्त होगई । अचानक दुर्ग का लोहे का फाटक खुला। ___ अंगरेज़ समझे कि बलभद्रसिंह अब हमारी अधीनता स्वीकार कर लेगा, किन्तु उन्हें धोखा हुआ। शायद अब भी शत्रु की अधीनता स्वीकार करने का विचार तक वीर बलभद्रसिंह या उसके साथी गोरखों के चित्त में न आया होगा। कलङ्गा के भीतर के करीब ६०० प्राणियों में से ७० उस समय तक ज़िन्दा बचे थे, जिनमें कुछ स्त्रियाँ भी थीं। ये सब प्यास से बेताब थे। दुर्ग का फाटक खुलते ही ये ७० गोरखे स्त्री और पुरुष नङ्गी तलवारें हाथों में लिए, बन्दूके कन्धों पर रक्खे, कमर से खुकरियाँ लटकाए, सरों पर फौलादी चक्र लपेटे, वीर बलभद्रसिंह के नेतृत्व में शान्ति और शान के साथ फाटक से बाहर निकले । बलभद्रसिह का शरीर सीधा, चेहरा हँसता हुआ और चाल एक सच्चे सिपाही की तरह नपी हुई थी। पेश्तर इसके कि अंगरेज़ अफ़सर यह समझ सके कि क्या हो रहा है, बलभद्रसिंह अंगरेज़ी सेना के बीच से रास्ता काटता हुआ अपने ७० साथियों सहित नालापानी के झरनों पर 'पहुँचा । जी भर कर उन सब ने चश्मों का ताजा पानी पिया, और फिर वहाँ से ललकार कर कहा-तुम्हारे लिये दुर्ग विजय