पृष्ठ:भारत में इस्लाम.djvu/२८४

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२७५ 1 किसी ने रोक-टोक न की। उधर नवाब ने सब हाल जानकर भी मीरजाफ़र को उसके अपराधों को क्षमा करके महल में बुला भेजा। लोगों ने उसे गिरफ्तार करने की भी सलाह दी थी परन्तु नवाब ने समझा-अलीवर्दी के नाम और इस्लाम-धर्म को ख्याल कराकर समझाने-बुझाने से वह सीधे मार्ग पर आ जायगा। पर मीरजाफ़र डरकर राजमहल में नहीं गया। अन्त में आत्माभिमान को छोड़कर नवाब स्वयँ पालकी में बैठकर मीरजाफ़र के घर पहुँचा। मीरजाफ़र को अब बाहर निकलना पड़ा। उसकी आँखों में शर्म आई। उसने अपने प्यारे मित्र सरदार के मुख से करुणाजनक धिक्कार सुनी । मीरजाफ़र ने नवाब के पैर छूकर सब स्वीकार किया । कुरान उठायी और उसे सिर से लगाकर ईश्वर और पैग़म्बर की क़सम खाकर, उसने अंगरेज़ों से सम्बन्ध तोड़कर-नवाब की सेवा धर्म-पूर्वक करने की प्रतिज्ञा की। घर की इस फूट को प्रेमपूर्वक मिटाकर नवाब को सन्तोष हुआ अब उसने सेना का आह्वान किया । पर बागियों के बहकाने से सेना ने पहले बिना वेतन पाये, युद्ध-यात्रा से इनकार कर दिया । नवाब ने वह भी चुकाया। मीरजाफ़र प्रधान सेनापति बना। यारलतीफ़खाँ- दुर्लभराय-मीर मदन- मोहनलाल-और फ्रेंच सिनफ्रे एक-एक विभाग के सेनाध्यक्ष बने । अंगरेज़ इतिहासकारों ने मीरजाफ़र को क्लाइव का गधा लिखा है। उस क्लाइव के गधे ने क्लाइव को, नवाब के साथ जो कसम-धर्म हुआ, था-सब लिख भेजा। साथ ही यह भी लिख दिया-"बढ़ चले आओ मैं अपने वचनों का वैसा ही पक्का हूँ।" पर क्लाइव को आगे बढ़ने का साहस न हुआ। वह पाटुली में छावनी डालकर पड़ गया। सामने कोठाया का क़िला था। यह निश्चय हो चुका था कि सेनाध्यक्ष कुछ देर बनावटी युद्ध करके पराजय स्वीकार कर कर लेगा । क्लाइव ने पहले इसी की सचाई जाननी चाही। मेजर कूट २०० गोरे और ३०० काले सिपाही लेकर किले पर चढ़ा। मराठों के समय में गहरी-गहरी लड़ाइयों के कारण भागीरथी और अजम के संगम का यह क़िला वीरों की लीला-भूमि प्रसिद्ध हो चुका था। परन्तु इस बार फाटक पर युद्ध नहीं हुआ। कुछ देर नवाबी सेना नाटक-सा खेलकर जगह-जगह