पृष्ठ:भारत में इस्लाम.djvu/३३५

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३२६ ज्ञान नुकतों की न्यूनाधिक संख्या से होता है। अरबी वर्णमाला की रचना करती बार अरबों ने इस नियम पर भी ध्यान रक्खा, कि किसी एक ध्वनि का उच्चारण-स्थान खोज निकालने पर, उस ध्वनि के निकटवर्ती, स्थानों से उच्चारित न होने वाली ध्वनियों के लिये नये-नये स्वतंत्र चिन्हों की सृष्टि न करके उसी ध्वनि के उच्चारण-चिन्ह में थोड़ा फेर-फार कर दिया जाय । यह ठीक भी था, क्योंकि उच्चारण-स्थानों की निकटता के अनुसार उच्चा- रण-चिन्हों के स्वरूप में भी विशेष भिन्नता न रहना उचित है। जब यह लिपि ईरान से भारतवर्ष में आई, तब वहाँ वालों ने देखा कि ईरानियो के संशोधन करने पर भी इस लिपि में १५ ध्वनियों की कमी है । उन्होंने १४ ध्वनियाँ और जोड़ दीं। परन्तु जैसे ईरानियों ने एक-एक नुक़ते की जगह दो-दो चार-चार नुक़ते लगाकर, काम चलाया-वैसा न करके ज़ोय से काम लिया । शेष ११ ध्वनियों को उन्होंने द्विमात्रिक बना लिया। अर्थात् इन ग्यारह चिन्हों में जो प्रथम से मौजूद थे, एक और जोड़ दिया। पर पीछे-से ये ध्वनियाँ एक-मात्रिक ही मानी गईं; जैसाकि उर्दू-कविता से स्पष्ट होता है । फिर भी जैसा चाहिये था, वैसा काम न चला। जिन्हें भ, फ़, ढ़ आदि के बोलने का अभ्यास था, ही इसका ठीक-ठीक उच्चारण कर सकते थे। परन्तु अरब और ईरानी लोगों ने, जिन्हें इन अक्षरों का अभ्यास न था, उसका अपने ढंग का एक विलक्षण ही उच्चारण शुरू कर दिया। उस परिभाषिक ध्वनि का उन्होंने एक नियम भी बना लिया। उसी के अनुसार बनाये गये अरबी शब्दों के नाम अरबों ने अरब, और ईसाइयों ने मुफ़र्रस रख दिया। इस तरह अरबों ने ईरानियों और हिन्दुस्तानियों की और ईरानियों ने हिन्दुस्तानियों की विशेष ध्वनियों को अपने-अपने ढंग पर उच्चारण करना शुरू कर दिया। इस संघर्षण का प्रभाव संस्कृत और हिन्दी-लिपि पर भी पड़ा । कुछ अरबी ध्वनियों का हिन्दी-लिपि में अभाव था। पर हिन्दी ने ईरानियों की तरह बिन्दी लगाकर ख, ग, ज़, फ़, क, अ बना लिये, अर मज़ में काम चलाया फिर भी फ़ारस-लिपि ही उर्दू की लिपि रही। किन्तु उसमें जो हिन्दुस्तानी ध्वनियों का अभाव था-अब तक है । ऋ, ऋ, लु, लु, क्ष, त ,