पृष्ठ:भारत में इस्लाम.djvu/६४

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ढल गया था। प्रारम्भ में जौ बौद्ध मत ने संस्कृत का स्थान छीन कर प्राकृत या पाली भाषा को दे दिया था---अब वह फिर संस्कृत को मिल गया था और ब्राह्मणों की अब बन आई थी।

धीरे-धीरे वैष्णव मत, शैव मत और तान्त्रिक समुदाय ने मिल कर धम को भारत से निकाल बाहर कर दिया। कुछ उच्च श्रेणी के लोग उपनिषद् और दर्शन शास्त्र का मनन करते थे। पर सर्वसाधारण का धर्म-पथ अन्धकारमय, अरक्षित और ऊजड़ था। जिस जाति भेद को बौद्ध धर्म ने नष्ट कर स्त्रियों और शूद्रों को मनुष्यत्व के अधिकार प्रदान करना चाहा था, वह फिर और भी अन्ध भित्ती पर क़ायम होगया था। ब्राह्मणों के अब असाध्य अधिकार बढ़ गये थे। जनता को जाति पाँति और ऊँच नीच की दलदल ने फाँस लिया था और असंख्य भयानक देवी देवता, शक्ति, जप, तप, यज्ञ, हवन, पूजा, पाठ, दान, मंत्र, तन्त्र और जटिल कर्मकाण्ड के सिवाय कोई धर्म न रह गया था--इस बात का पता उस समय के साहित्य, चीनी तथा अरब के यात्रियों के वृत्तान्तों, सिक्कों तथा शिला लेखों से लगता है।

पांचवीं शताब्दि में फाहियान ने उत्तर-पच्छिम में पुरातन काबुल से मथुरा तक हीनयान सम्प्रदाय देखा था, पर उनके दो सौ वर्ष बाद ही जब ह्वेनसाँग आया तो उसने महायान को उसके स्थान पर देखा। उसने शिव की पूजा को बड़ी तेजी से फैलते देखा, और अयोध्या के निकट दुर्ग के सामने मनुष्य बलि चढ़ती देखी थी। और बुद्ध की मूर्तियों के स्थान पर शिवमूर्तियाँ स्थापित होते, तथा बौद्धों को यन्त्रणा देकर निकालते देखा था। उसने नरमुण्डों की माला पहिने कापालिकों को भी देखा था। उसने ईरान, अफ़ग़ानिस्तान और मध्य एशिया तक बौद्धों और शैवों को बराबर पाया था। परन्तु इसके बाद के अरब के यात्रियों ने बौद्धों के धर्म को लुप्त हुआ पाया। अलबरूनी ने ग्यारहवीं शताब्दी में शैव, वैष्णव, शाक्त, सूर्य, चन्द्र, ब्रह्मा, इन्द्र, अग्नि, स्कन्ध, गणेश, यम, कुवेर आदि असंख्य मूर्तियों की पूजा देखी। बौद्धों और जैनों, शाक्तों और कापालिकों का मद्यमांस संघर्ष देखा---जो धर्म का अंग बन गया था। इस प्रकार उस समय भारत