पृष्ठ:भाव-विलास.djvu/१५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
१४७
अलंकार


रसिक कन्हाई बलि पूछन हों आई तुम्हैं,
ऐसी प्यारी पाइ कैसे न्यारी रखि जाति है॥

शब्दार्थ—मन्दहास—मृदुहास। इन्दीबर—नीला कमल। बिद्रुम—मूंगा। मोतिन—मोती। पांति—पंक्ति। छाती न सिराति है—हृदय को शान्ति नहीं मिलती। कैसे...जाति है—भला कैसे अलग रखी जाती है।

८—समासोक्ति
दोहा

कछू बस्तु चाहै कहो, ता सम बरनै और।
सुसमासोक्ति सो जानिये, अलङ्कार सिरमौर॥

शब्दार्थ—सरल है।

'भावार्थ—जहाँ प्रस्तुत किसी वस्तु का वर्णन करते समय उसी के समान किसी अन्य अप्रस्तुत वस्तु का वर्णन किया जाय वहाँ समासोक्ति अलङ्कार होता है।

उदाहरण
सवैया

मालती सों मलिये निस द्योस हू, या सुखदानि ह्वै ज्यों समुझैयै।
प्रीति पुरानी पुरैनि के रैनि, रहौ नियरे न विपत्ति बहैयै॥
ऊपर ही गुनरूप अनूप, निरन्तर अन्तर मैं पतियैयै।
वे अलि दूलह भूलेहू देव जू, चम्पक फूल के मूल न जैयै॥

शब्दार्थ—निसद्योस—रात-दिन। पुरैन—कमल। नियरे—पास, निकट। निरन्तर—सदा, सर्वदा। पतियैयै—विश्वास करिए। भूले हू—भूल-कर भी।