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आंतर संचारी-भाव

 

'कविदेव' कह्यौ किनि काऊ कछू, तबतें उनके अनुराग छुही।
सबही सो यही कहै बाल-बधू, यह देखौरी माल गुपाल गुही॥

शब्दार्थ—अरिकै—अड़कर, हठ करके। लुही—लेभायमान हुई। उनहूं—उन्होंने भी।

३१—मरण
दोहा

प्रगटहिं लक्षन मरन के, अरू विभाव अनुमाव।
जो निदान करि बरनिये, तौ सिंगार अभाव॥
निर्वेदादिक भाव सब, बरने सरस सुभाइ।
ता बिधि मरनो बरनिये, जामै रस नहिं जाइ।

शब्दार्थ—लक्षन—लक्षण।

भावार्थ—जहाँ मरने के लक्षण प्रकट हों उसे मरण कहते है। परन्तु इसके यथार्थ वर्णन से शृंगार रस में फीकापन आ जाता है। अतः इसका वर्णन इस प्रकार सरसता पूर्वक करना चाहिए जिस प्रकार निर्वेदादि भावों का किया गया है। ऐसा करने से सरसता नष्ट नहीं होती।

उदाहरण
सवैया

राधिके बाढ़ी वियोग की बाधा, सुदेव अबोल अडोल डरी रही।
लोगन की वृषभान के भौन मैं, भोर तें भारियें भोर भरी रही॥
वाके निदान कै प्रान रहे कढ़ि, औषधि मूरि करोरि करी रही।
चेति मरू करिके चितई जब, चारि घरी लौं मरी सी धरी रही॥

शब्दार्थ—वियोग की बाधा—विरह की व्यथा। अबोल—बिना