पृष्ठ:भाषा-भूषण.djvu/२२

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( १२ ) माना गया है। डाकार ग्रियर्सन लिखते हैं कि इन जसवंतसिंह की मृत्यु सन् १८१५ ईस्वी में हुई । दूसरी प्रति का उल्लेख सन् १६०२ ईस्वी की रिपोर्ट में है, जो जोधपुर के राजकीय पुस्तकालय में सुरक्षित है। इस प्रति के प्रारंभ में 'श्रीजलंधरनाथायनमः' लिखा रहने से यह ज्ञात होता है कि यह प्रतिलिपि मारवाह-नरेश राजा मानसिंह के राज्याभिषेक । सन् १८०४ ई० ) के बाद तथा उन्हीं के समय की है। इसके अंत में लिखा है 'इति श्रीभाषाभूषण ग्रंथ महाराजाधिराज महाराजजी श्री जसवंतसिंह श्री कृत संपूर्णः' । जिसके राज्यकाल में यह लिखी गई थी उनके अन्य ग्रंथों में इसी प्रकार की इति है। उन्हीं के पूर्वज की कृति होने के कारण उस राज्य के नाम का उल्लेख करना श्रावश्यक नहीं समझा गया । यह कहना अनावश्यक है कि अठारहवीं शताब्दी के प्रारंभिक अशांतिमय समय में किसी साहित्यिक ग्रंथ का इतनी शीघ्र फरुखाबाद से मारवाह तक पहुँचना संभव नहीं है (३) मारवाइ नरेश को दोहा छंद सिद्ध हो गया था और उनके सभी अन्य ग्रंथ भग इसी छंद में है । तिवा नरेश के श्रृंगार-शिरोमणि अथ में देहा, सवैया, कवित्त सभी छंद है । मापाभूषण में केवल दोहे ही हैं । ( ४ ) भाषाभूषण में उपनाम का प्रयोग नहीं है और उसमें उसके प्रयोग का स्थान भी नहीं है। दोनों यशवंतसिंह ने अपने अन्य ग्रंथों में उपनाम 'यशवंत या जसवंत' का प्रयोग किया है पर मारवार नरेश केवल ग्रंथ के अंत में जब इसका उपयोग करते थे तो ति-िनरेश मध्य अंत सभी में करते थे। (५) हस्तलिखित पुस्तकों की खोज में भाषामूषण की दो टीकाएँ प्राप्त हुई है। हरिदास कृत टोका सं० १८३४ ( सन् १७७७ ई० ) में लिखी गई थी : नारायणदास की टीका का निर्माणकाल नहीं दिया है पर उनकी दूसरी पुस्तक छंदसार का नि० का. सन् १७७२ ई० है। ये टोकाएँ तिर्वी नरेश जसवंतसिंह की मृत्यु के चालीस बयालीस वर्ष पूर्व की हैं।