पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/१०३

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भाषा-विज्ञान के स्थान में पर-सों का प्रयोग होने लगता है। लिंग-भेद का भी समीकरण अथवा लोप प्रारंभ हो गया है, जैसे एक (अव्हो) सर्वनाम संस्कृत के सः, सा और तद् तीनों के लिये प्रयुक्त होता है। अर्थात् इस मध्यकालीन फारसी में अपभ्रंश भाषा के अधिक लक्षण मिलते हैं, और उममें तथा अर्वाचीन फारसी में वही भेद है जो परवर्ती अपभ्रंश और पुरानी हिंदी में है। जिस प्रकार वही अपभ्रंश की धारा आज हिंदी में विकसित हो गई, उसी प्रकार पहलवी का ही विकसित रूप आधुनिक फारसी है । अर्थात् विकास की दृष्टि से पहलवी अर्वाचीन फारसी और आधुनिक फारसी की, अपभ्रंश, पुरानी हिंदी और आधु- निक हिंदी से तुलना कर सकते हैं। अर्वाचीन फारसी हिंदी की नाई ही बहुत कुछ व्यवहित हो गई है और उसका आधुनिक रूप तो जीवित भारोपीय भाषाओं में सबसे अधिक व्यवहित माना जाता है। इस पर अरबी का विशेष प्रभाव पड़ा है । अर्वाचीन फारसी की वाक्य-रचना तक पर अरची का प्रभाव पड़ा है। भारत में यही अरवी से प्रभावित फारसी पढ़ी पढ़ाई जाती है। इस अर्वाचीन फारसी में ध्वनि और रूप का भी कुछ विकास तथा विकार हुआ है। मध्यकालीन फारसी की अपेक्षा उसके रूप कम और सरल हो गए हैं तथा उसके ध्वनि विकारों में मुख्य यह है कि प्राचीनतर 'क' त, प और च के स्थान में ग द ब और ज हो जाता है । इसी प्रकार प्राचीनतर य के स्थान में ज हो जाता है। शब्दों के आदि में संयुक्त व्यंजन भी इस काल में नहीं देख पड़ता । अवस्ता और प्राचीन फारस के स्ता (ठहरना) के स्थान में अर्वाचीन फारसी में सितादन या इस्तादन आने लगता है। इसी प्रकार प्राचीन रूप ब्रातर (भाई) के स्थान में अर्वाचीन फारसी में बिरादर आता है । अर्थात् प्राकृतों की भाँति यहाँ भी युक्त-विकर्ष और अक्षरागम की प्रवृत्ति देख पड़ती है। अधिक व्यवहार में आने और विदेशी संपर्क से भाषा कैसे व्यव- हित और रूपहीन हो जाती है, इसका सबसे अच्छा उदाहरण फारसी है । यह मुस्लिम दरवार की भापा थी और एक समय समस्त एशिया