पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/१२६

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भाषाओं का वर्गीकरण १०१ रहनेवाले थोड़े से लोगा की बोली है। इसके कुछ वक्ता सीमाप्रांत में भी मिलते हैं। अफगान-भापा की अनेक पहाड़ी बोलियाँ हैं पर उस भाषा की विभाषाएँ दो ही हैं—पश्चिमोत्तर की पख्तो और दक्षिण-पूर्व की पश्तो। दोनों में भेद का आधार प्रधानतः उच्चारण-भेद है। भारत का संबंध पश्तो से अधिक है और अपनी प्रधानता के कारण प्राय: 'पश्तो अफगानी का पर्याय मानी जाती है। यह भाषा है तो बड़ी शक्तिशालिनी और स्पष्ट, पर साथ ही वड़ी कर्कश भी है। पियर्सन ने एक कहावत उद्धृत की है कि पश्तो गर्दभ का रेंकना है। गलचा पामीर की बोलियाँ हैं। उनमें कोई साहित्य नहीं है और न उनका भारत के लिये अधिक महत्त्व ही है, पर उनका संबंध भारत की आर्य भाषाओं से अति प्राचीन काल से चला आ रहा है। यास्क, पाणिनि और पतंजलि ने जिस कंवोज की चर्चा की है वह गलचा भापा का पहाड़ी क्षेत्र है । महाभाज्य में 'शवतिर्गतिकर्मा का जो उल्लेख मिलता है वह आज भी गलचा बोलियों में पाया जाता है। सुत का अर्थ गतः (गया) होता है। ग्रियर्सन ने इसी गलचा धातु का उदाहरण दिया है। पामीर और पश्चिमोत्तर पंजाब.के. बीच में दरदिस्तान है और वहाँ की भाषा तथा बोली दरद कहलाती है। दरद नाम संस्कृत साहित्य में सुपरिचित है। ग्रीक लेखकों ने भी उसका उल्लेख किया हैं । एक दिन दरद भाषा के बोलनेवाले भारत में दूर तक फैले हुए थे.. इसी से आज भी लहँदा, सिंधी, पंजावी और सुदूर कोंकणी मराठी पर भी उसका प्रभाव लक्षित होता है। इस दरद भाषा को ही कई विद्वान् . पिशाच अथवा पैशाची भाषा कहना अच्छा समझते हैं। पिशाची के तीन भेद ये हैं-खोवारवर्ग, काफिरवर्ग और दरवर्ग। इनमें से दरद के तीन विभेद होते हैं--शीना, काश्मीरी और कोहिस्तानी । खोबारी वर्ग ईरानी और दरद के बीच की कड़ी है। काफिर बोलियाँ चित्राल के पश्चिम में पहाड़ों में बोली जाती हैं। शीना