पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/१३२

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भाषाओं का वर्गीकरण १०७ 1 करते हैं। यही खड़ी बोली का साहित्यिक रूपी हिंदी के नाम से राष्ट्र- भाषा के सिंहासन पर बिठाया जा रहा है जब वही खड़ी बोली फारसी-अरबी के तत्सम और अर्धतत्सम शब्दों. को इतना अपना लेती है कि कभी कभी उसकी वाक्य-रचना पर भी कुछ विदेशी रंग चढ़ जाता है तब उसे उर्दू कहत उर्दू हैं। यही उर्दू भारत के मुसलमानों की साहि- त्यिक भाषा है। इस उर्दू के भी दो रूप देखे जाते हैं। एक दिल्ली लखनऊ आदि की तत्सम बहुला कठिन उर्दू और दूसरी हैदराबाद की सरल दक्खिनी उर्दू (अथवा हिन्दुस्तानी ) । इस प्रकार भाषा-वैज्ञानिक दृष्टि में हिंदी और उर्दू खड़ी बोली के दो साहित्यिकरूप मात्र हैं। एक का ढाँचा भारतीय परंपरागत प्राप्त है और दूसरी को फारसी का आधार बनाकर विकसित किया जा रहा है। खड़ी बोली का एक रूप और होता है जिसे न तो शुद्ध साहित्यिक ही कह सकते हैं और न ठेठ बोलचाल की बोली ही कह सकते हैं । हिंदुस्तानी वह है हिंदुस्तानी जो विशाल हिंदी प्रांत के लोगों की परिमार्जित बोली है। इसमें तत्सम शब्दों का व्यवहार कम होता है, पर नित्य व्यवहार के शब्द देशी-विदेशी सभी काम में आते हैं। संस्कृत, फारसी, अरवी के अतिरिक्त अँगरेजी ने भी हिंदुस्तानी में स्थान पा लिया है । इसी से एक विद्वान् ने लिखा है कि "पुरानी हिंदी, उर्दू और अँगरेजी के मिश्रण से जो एक नई जवान आप से आप बन गई है वह हिंदुस्तानी के नाम से मशहूर है।" यह उद्धरण भी हिंदुस्तानी का अच्छा नमूना है । यह भाषा अभी तक बोलचाल की बोली ही है। इसमें कोई साहित्य नहीं है। किस्से, गजल, भजन आदि की भाषा को, यदि चाहें तो, हिंदुस्तानी का ही एक रूप कह सकते हैं। आजकल कुछ लोग हिंदुस्तानी को साहित्य की भाषा बनाने का यत्न कर रहे हैं पर वर्तमान अवस्था में वह राट्रीय बोली ही कही जा सकती है। उसकी उत्पत्ति का कारण भी परस्पर विनिमय की इच्छा ही है। जिस प्रकार उर्दू के रूप में खड़ी बोली ने