पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/१४९

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१२४ भाषा-विज्ञान (६) दंत्य ध्वनियाँ ऊपर के दाँतों की पंक्ति और जिह्वानीक से उच्चरित. होती हैं; उदाहरणार्थ हिंदी त, थ, ६ और ध । दंत्य के कई उपभेद होते हैं-पुरोदत्य ( अथवा प्रादित्य ), अंतदैत्य, पश्चाईत्य (अथवा दंतमूलीय )। हिंदी में 'त' पुरोदत्य और 'थ' अंतदैत्य होता है । अँगरेजी के 'त' और 'द' दंतमूलीय होते हैं । (७) ओष्ठ्य, वर्णों का उच्चारण विना जिह्वा की विशेष सहायता के होठों द्वारा होता है। (क) द्वयोष्ठ्य, जैसे--हिंदी प और फ द्वथोष्ठ्य वर्णों का उच्चारण केवल दोनों अोठों से होता है। (ख) दंतोष्ठ्य, जैसे---और ब इनका उच्चारण नीचे ओठ और ऊर के दाँतों द्वारा होता है। (८) जिह्वामूलीय-हिंदी में कुछ ऐसी विदेशी ध्वनियाँ भी आ गई हैं जो जिह्वामूल से उच्चरित होती हैं। जैसे---क, ख, रा । इन्हें जिह्वा- मूलीय कह सकते हैं। यदि हम उच्चारण की प्रकृति और प्रयत्न के अनुसार व्यंजनों का वर्गीकरण करें अर्थात् व्यंजनों का इस घष्टि से विचार करें कि शरीरा- वयव उनका किस प्रकार उच्चारण करते हैं तो हम हिंदी में श्रीठ वर्ग बना सकते हैं- (१) स्पर्श (अथवा स्फोट) वर्ण वे हैं जिनके उच्चारण में अवयवों का एक दूसरे से पूर्ण स्पर्श होता है। पहले मुख में हवा बिलकुल रुक जाती है और फिर एक झोंके में धक्का देकर बाहर निकलती है। इसी से एक स्फोट की ध्वनि होती है; जैसे--क अथवा प । (२) घर्ष (अथवा संवर्षी) वर्ण के उच्चारण में वायु-मार्ग किसी एक स्थान पर इतना संकीर्ण हो जाता है कि हवा के बाहर निकलने में सर्प की जैसी शीत्कार अथवा ऊज्म ध्वनि होती है। इस प्रकार इन वों के उच्चारण में जिह्वा और दंतमूल अथवा वर्क्स के बीच का मार्ग खुला रहता है, विलकुल बंद नहीं हो जाता । इसी से हवा रगड़ खाकर निकलती है अत: इन्हें घर्ष अथवा विवृत व्यंजन कहते हैं इनके