पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/१५२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ध्वनि और ध्वनि-विकार १२७ स्वर जव, किसी अवयव की--विशेपकर जिह्वा को केवल अवस्था में परिवर्तन होने से ध्वनि मुख से बाहर निकलकर उच्चरित हो जाती है किसी प्रकार का स्पर्श अथवा घर्षण नहीं होता, तब उस उत्पन्न ध्वनि को स्वर; और जिह्वा की उस अवस्थिति को स्वरावस्थिति अथवा अक्षरावस्थिति कहते हैं। अभ्यास करने से हमारे कान इस प्रकार की न जाने कितनी अक्षरा- वस्थितियों की कल्पना कर सकते हैं। जाने कितने सौ अक्षर सुन सकते हैं, पर प्रत्यक्ष व्यवहार में प्रत्येक भाषा की स्वर-संख्या परिमित ही होती है । हिंदी के मूलस्वर (अथवा समानाक्षर ) ये हैं- अ आ आँ [ ] [ आँ] [] उ उ.] ऊई इ [इ.] ए [ए] [ए] [एँ] [ए] [अ] इन मूलस्वरों अथवा समाना- क्षरों के अनुनासिक तथा संयुक्त रूप भी पाए जाते हैं । उनका वर्णन आगे पायगा। स्वरों का अधिक वर्णन करने के पूर्व हमें स्वर और अक्षर के अर्थ पर विचार कर लेना चाहिए । स्वर और व्यंजन-ये दो प्रकार की ध्वनियाँ होती हैं। संस्कृत में 'वर्ण' से इन . स्वरों का वर्गीकरण सभी ध्यनियों का अर्थ लिया जाता है, पर अक्षर से केवल स्वर का वोध होता है। हिंदी में कभी-कभी वर्ण और अक्षर का पर्याय जैसा प्रयोग होता है। शास्त्रीय पद्धति का निर्वाह करने के लिए हम भी संस्कृत का अर्थ ही मानेंगे और वर्ण में स्वर और व्यंजन दोनों का अंतर्भाव करेंगे, पर अक्षर को स्वर का पर्याय मात्र मानेंगे। जहाँ 'सुर' और 'वल' का वर्णन करना पड़ता है वहाँ यह भेद सुविधा- जनक होता है। (स्वरवणों में विशेष गुण जिह्वा और होठों की अवस्थाओं से उत्पन्न होते हैं। अत: जिह्वा के प्रधान अंगों के अनुसार उनका वर्गी-