पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/१५६

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वृत्ताकार और ध्वनि और ध्वनि-विकार १३१ (स्वरों का गुण ओठों की स्थिति पर निर्भर रहता है । उच्चारण करते समय श्रोष्ठ स्वाभाविक अर्थात् उदासीन अवस्था में रहते हैं अथवा वे इस प्रकार संकुचित होते हैं कि उनके बीच में कभी गोल और कभी लंवा विवर वन प्रवृत्ताकार स्वर जाता है। जिन स्वरों के उच्चारण में होठों की आकृति गोल सी हो जाती है वे गोल अथवा वृत्ताकार स्वर कहलाते हैं और शेप अवृत्ताकार कहलाते हैं। जैसे ऊ वृत्ताकार और ई, आ आदि अवृत्ताकार अक्षर हैं। मांसपेशियों की शिथिलता और दृढ़ता के विचार से भी स्त्ररों का विचार किया जाता है और स्वर दृढ़ और शिथिल माने जाते हैं; जैसे-ई और ऊ दृढ़ स्वर हैं। इ और उ शिथिल दृढ़ और शिथिल स्वर स्वर हैं । कंठपिटक और चिघुक के बीच में अँगुली रखने से यह सहज ही अनुभव होने लगता है कि हस्त्र इ के उच्चारण में वह भाव कुछ शिथिल हो जाता है पर दीर्घ ई के उच्चारण में वह सर्वथा दृढ़ रहता है कंठ अर्थात् कोमल तालु का भी स्वर-गुण पर प्रभाव पड़ता है। साधारण स्वरों के उच्चारण करने में कंठ अर्थात् कोमल तालु उटकर गल-विल की भित्ति से जा लगता है (देखो चित्र सं० २); इसलिये नासिका-विवर बंद हो जाता है और ध्वनि केवल मुख में से निकलती है। पर जब यह कोमल तालु थोड़ा नीचे आ जाता है तब हवा मुख और नासिका दोनों में से निकलती है। ऐसी स्थिति में उच्चरित स्वर अनुनासिक कहे जाते. हैं) शिष्ट हिंदी में सानुनासिक कर प्राय: नहीं. आगे मिलते पर बोलियों में पाए जाते हैं। इन सानुनासिक स्वरों के अतिरिक्त अन्य कई प्रकार की ध्वनियाँ होती हैं; जैसे--संध्यक्षर, श्रुति, प्राण-ध्वनि अादि ।- हम पीछे अक्षर को स्वर का पर्याय मान चुके हैं। उसका संस्कृत ग्रंथों में एक अर्थ और भी होता रहा है । अक्षर उस ध्वनि