पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/१५९

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१३४ भाषा-विज्ञान के बीच में श्रुति होती है वही इतनी बढ़ जाती है कि 'सुंदर' शब्द वन जाता है; 'बानर' का बाँदर (मराठी), बंदर (हिंदी) आदि वन जाता है । ऐसे उदाहरण प्राकृतों और देश-भाषाओं में ही नहीं, स्वयं संस्कृत में मिलते हैं; जैसे-ऋग्वेद में इंद्र का इंदर, दर्शत का दरशत; लौकिक संस्कृत में स्वर्ण का सुवर्ण, पृथ्वी का पृथिवी, सूनरी का सुंदरी आदि। बोलने में हम साँस लेने के लिये अथवा शब्दार्थ स्पष्ट करने के लिये ठहरते हैं। जितने वर्णों अथवा शब्दों का उच्चारण हम बिना विराम श्वास-वर्ग अथवा विश्राम लिए एक साँस में कर जाते हैं उनको एक श्वास-वर्ग कहते हैं। जैसे- हाँ, नमस्कार, मैं चलूँगा । इस वाक्य में तीन श्वास-वर्ग हैं-(१) हाँ, (२) नमस्कार और (३) मैं चलेगा । यदि किसी श्वास-वर्ग के आदि में स्वर रहता है तो उसकी ध्वनि का 'प्रारम्भ' कभी 'क्रमिक' होता है, कभी स्पष्ट। जव काकल के श्वास स्थान से नाद-स्थान तक आने में एक पूर्वश्रुति होती है तब ध्वनि का प्रारंभ क्रमिक होता है और जब ध्वनि उत्पन्न होने. तक श्वास सर्वथा अवरुद्ध रह जाता है तब माण-ध्वनि प्रारंभ स्पष्ट होता है। साधारणतया इन दोनों ही दशाओं में वक्ता की ध्वनि का आघात ( अथवा बलायात) टीक स्वर पर ही पड़ता है, पर कभी कभी वक्ता उस स्वर के उच्चारण के पहले से ही एक आघात अथवा झटके से वोलता है-स्वर का उच्चारण करने के पूर्व ही कुछ जोर देकर बोलता है। ऐसी स्थिति में उस स्वर के पूर्व एक प्राण-ध्वनि सुन पड़ती है। जैसे ए, ओ, अरे की पूर्व श्रुतियों पर जोर देने से हे, हो, हरे बन जाते हैं। इसी प्रकार अस्थि और श्रोष्ठ के समान शब्दों में इसी जोर लगाने की प्रवृत्ति के कारण प्राण-ध्वनि (ह) आ मिलती है और हड्डी, होठ आदि शब्द बन जाते हैं। इस प्रकार हिंदी और अँगरेजी आदि का 'ह' ऋमिक प्रारंभ