पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/१६०

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समाण स्पर्श ध्वनि और ध्वनि-विकार १३५ वाली पूर्वश्रुति का ही 'जोरदार' रूप है । यही कारण है कि आदि के ह को कई विद्वान् अत्रोप और श्वास मानते हैं। इस प्राण-ध्वनि का आगम बोलियों में मध्य और अंत में भी पाया जाता है। जैसे-'भोजपुरिया' फटा और खुला को फटहा और खुल्हा कहते हैं। दुःख, छि: आदि में जो विसर्ग देख पड़ता है वह भी प्राण- ध्वनि ही है । ख, घ आदि में जो प्राण-ध्वनि सुन पड़ती है उसी के कारण संस्कृत-भाषा-शास्त्रियों ने अल्पप्राण और महाप्राण-दो प्रकार की ध्वनियों के भेद किए हैं। जब वही श्रुति आदि में न होकर किसी स्पर्श और स्वर के बीच में आती है और उस पर जोर (वल) दिया जाता है तब 'सप्राण' अर्थात् महाप्राण स्पशों का उच्चारण होता है; जैसे-क+ ह+अख, म+ह+अघ। प्राचीन काल में ग्रीक भाषा के ख, थ, फ ऐसे ही सप्राण स्पर्श थे। आज जब कोई आयरिश pot को phat अथवा tell को t hell उच्चारण करता है तो यही प्राण-ध्वनि सुन पड़ती है । संस्कृत के कपाल का देशभापाओं में खोपड़ा और खप्पर रूप हो गया है। उसमें भी यह सप्रारण उच्चारण की वृत्ति लक्षित होती है। विश्लेपण की दृष्टि से वर्णन करते समय हम लघूच्चारण वाली श्रुति तक का विचार करते हैं और जब हम ध्वनि को संहिति और संश्लेप की दृष्टि से देखते हैं तब हमें वाक्य तक वाक्य के खंड एक ध्वनि प्रतीत होती है। शास्त्र और अनुभव दोनों का यही निर्णय है कि ध्वनि और अर्थ दोनों के विचार से चाच अखंड होता है। वाक्य का विभाग सब्दों में नहीं होता, पर मनुष्य की व्यवहार पटु अन्वय व्यतिरेक की बुद्धि ने व्यवहार की दृष्टि से विभाग शब्दों में ही नहीं, वों में भी कर डाला है पर ध्वनित: आज भी वाक्य अखंड ही उच्चरित होता है। यद्यपि लिखने में और व्यावहारिक दृष्टि से विचार प्रकट करने में शब्दों के बीच में हम अंतर छोड़ते हैं पर शब्दों के बोलने में वह अंतर नहीं होता। वाक्य के शब्दों के बीच