पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/१६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भाषा-विज्ञान में केवल तव विराम होता है जब हम साँस लेने के लिए ठहरते हैं। इस प्रकार जितवे शब्द अथवा वाक्य एक साँस में वोले जाते हैं उन्हें मिलाकर एक श्वास-वर्ग कहते हैं । एक लंबे वाक्य में जितने गौण वाक्य होते हैं प्राय: उतने ही श्वास-वर्ग भी होते हैं, पर ऐसा होना कोई नियम नहीं है। एक बात यहाँ ध्यान देने योग्य है कि रोमन काल के पूर्व ग्रीक अभिलेखों में यह शब्दों में अंतर छोड़ने की रीति नहीं मिलती। और भारतवर्ष में भी प्राचीन हस्तलिखित पुस्तकों में यही बात मिलती है। अव ध्वनि की दृष्टि से वर्ण और वाक्य दोनों महत्त्व के हैं। दोनों के बीच में किस प्रकार ध्वन्यात्मक संबंध प्रकट किया जाता है, इसकी विवेचना के लिए परिमाण (मात्रा), बल, (स्वर-विकार) अथवा वाक्य-स्वर), स्वर (गीतात्मक स्वराधात) आदि का थोड़ा विचार करना पड़ता है। उसकी पार्श्ववर्ती ध्वनियों की तुलना में किसी ध्वनि के उच्चारण में जो काल लगता है उसे ध्वनि की लम्बाई अथवा परिमाण कहते हैं। यह काल तुलना की दृष्टि से मापा जाता है परिमाण अथवा मात्रा अत: एक छोटे (हस्त्र) स्वर को जितना समय लगता है उसे एक मात्रा मान लेते हैं। इसी लिए जिस अक्षर में दो मात्रा-काल अपेक्षित होता है उसे दीर्घ अक्षर और जिसे दो से भी अधिक मात्रा की आवश्यकता होती है उसे प्लुत कहते हैं । (१) ह्रस्व (२) दीर्च, (३) तुत इन तीनों भेदों के अतिरिक्त दो भेद और होते हैं- (४) हवा– (स्वर) और (५) दीर्वाद्ध (स्वर) । जब कभी व्यंजन स्वरयत् प्रयुक्त होते हैं उनका परिमाण अर्धमात्रा अर्थात् ह्रस्वार्थ काल ही होता है। शवो के उच्चारण में अक्षरों पर जो जोर (मक्का) लगता है उसे वल कहते हैं। ध्वनि कंरन की लहरों से बनती है। यह बल अथवा आघात (झटका) उन ध्वनि-लहरों के छोटी-बड़ी होने पर निर्भर होता है। माना' का उच्चारण L बल