पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/१६२

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. ध्वनि और ध्वनि-विकार १३७ काल के परिमाण से संबंध रहता है और 'बल' का स्वर-कंपन की छुटाई- वड़ाई के परिमाण से। इसी से फेफड़ों में से नि:श्वास जितने वल से निकलता है इसके अनुसार वल में अंतर पड़ता है। इस बल के उच्च, मध्य और नीच होने के अनुसार ही ध्वनि के तीन भेद किए जाते हैं- सवल, समबल, निर्वल । जैसे-कालिमा' में मा तो सरल है, इसी पर धमा लगता है और का' पर उससे कम और लि पर सबसे कम बल पड़ता है। अत: 'का' समवल और 'लि' निर्वल है। इसी प्रकार पत्थर में रत्', अंत:करण में 'अ', चंद्रा में 'चन्' आदि सबल अक्षर हैं। ग्रीक और संस्कृत के छंद मात्रा से संबंध रखते थे पर अगरेजी के छंद बल पर निर्भर होते हैं। हिंदी के भी अनेक मानिस और वर्णिक छंद में मात्रा और बल छंदों का मूलाधार स्वरों की संख्या या मात्राकाल न होकर वास्तव में चल अथवा आत्रात ही होता है। छंदों में उच्चारण की दृष्टि से हस्त्र अथवा दीर्घ हो जाना इस वात का प्रमाण है। हिंदी और संस्कृत में 'स्वर' का अनेक अर्थों में प्रयोग होता है । वर्ण, अक्षर (syllable), सुर (pitch,) आवाज (tone of voice) आदि सभी के अर्थ में उसका व्यवहार होता है । यहाँ हम उसके अंतिम दो अर्थों की अर्थात् सुर और आवाज की व्याख्या करेंगे। इनके लिये हम स्वर अथवा पदस्वर और स्वर-विकार अथवा वाक्यस्वर नामों का प्रयोग करेंगे । जिसे हम स्वर (अथवा गीतात्मक स्वर) कहते हैं वह अक्षर का गुण है और स्वर-विकार अथवा आवाज का चढ़ाव-उतार वाक्य का गुण है । स्वर-विकार अथवा वाक्य-स्वर से वक्ता प्रश्न, विस्मय, घृणा, प्रेम, दया आदि के भावों को प्रकट करता है । यह विशेषता सभी भाषाओं में पाई जाती है अत: इसके उत्तादि भेदों के विशेष वर्णन की आवश्यकता नहीं। पर स्वर अर्थात् अक्षर स्वर कुछ भापाओं में ही पाया जाता है। उसे समझने के लिये पहले हमें स्वर और वल के भेद पर विचार कर लेना चाहिए। हम देख चुके हैं कि वल-जिन कंपनों स्वर