पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/१६३

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१३८ भाषा-विज्ञान से ध्वनि बनती है उनके परिमाण पर निर्भर रहता है पर स्वर इन कंपनों की संख्या (आवृत्ति) पर निर्भर होता है। इस प्रकार स्वर गेय होता है । चढ़ाव-उतार के अनुसार स्वर के तीन भेद किए जाते हैं-उदात्त, अनुदात्त और स्वरित । शब्द के जिस अक्षर पर उदात्त स्वर रहता है वही सस्वर कहलाता है। प्राचीन ग्रीक और वैदिक संस्कृत में ऐसे ही स्त्रर पाये जाते हैं । लैटिन अँगरेजी, आधुनिक ग्रीक, लौकिक संस्कृत और हिंदी आदि में बल ही प्रधान रहा है । आधुनिक युग में भी श्यासी, अनामी आदि अनेक भाषाएँ सस्वर मिलती हैं। अब ध्वनि के गुणों का इतना परिचय हमें मिल गया है कि हम हिंदी ध्वनि-समूह का थोड़े विस्तार में वर्णन कर सकते हैं। जिन पारिभाषिक शब्दों की पीछे व्याख्या हो चुकी है उन्हीं का हम प्रयोग करेंगे । जैसे यदि हम कहें कि 'क' श्वास कंठ्य स्पर्श है तो इस वर्णन से यह समझ लेना चाहिए कि 'क' एक व्यंजन है जिसके उच्चारण में जिह्वामध्य ऊपर उठकर कंठ ( अर्थात् कोमल तालु) को छू लेता है; कोमल तालु इतना ऊँचा उठा रहता है कि हवा नासिका में नहीं जा पाती अर्थात् यह ध्वनि अनुनासिक नहीं है; हवा जब फेफड़ों में से निकलकर ऊपर को आती है तो स्वर-संत्रियाँ कंपन नहीं करती ( इसी से तो वह श्वास-ध्वनि है); और जीभ कंठ को छूकर इतनी शीघ्र हट जाती है कि स्फोट-ध्वनि उत्पन्न हो जाती है (इसी से वह स्पर्श-ध्वनि कही जाती है)। इसी प्रकार यदि 'इ' को 'संघृत अग्र स्वर कहा जाता है तो उससे यह समझ लेना चाहिए कि 'इ' एक स्वर है; उसके उच्चारण में जिह्वान कोमल तालु के इतने पास उठकर पहुँच जाता है कि मार्ग बंद सा हो जाने पर घर्षण नहीं सुनाई पड़ता और कोमल तालु नासिकामार्ग को बंद किए रहता है। ध्वनि-शिक्षा का प्रयोग से संबंध था पर ध्वनि-विचार ध्वनियों के इतिहास, तुलना और सिद्धांत आदि सभी का ध्वनि-विचार सम्यक विवेचन करता है । ध्वनि-शान के सिद्धांत इतिहास और तुलना की सहायता से ही बनते हैं अत: