पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/१६६

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ध्वनि और ध्वनि-विकार १४१ आदि शब्दों का जो प्रत्यक्षरीकरण किया है वह भी प्राचीन उच्चारण का ज्ञापक होता है। इसके अतिरिक्त तुलनात्मक भापा-विज्ञान की सहायता से संहिता को और उसके बाहर के ध्वनि-विकारों को देखकर यह पूर्ण निश्चय हो गया है कि भारत के प्राचीन वैयाकरणों ने जो ध्वनि-शिक्षा का विवेचन किया था। वह सर्वथा वैज्ञानिक था। इसी प्रकार पाली, प्राकृत और अपभ्रंश के उम्पारण का भी ज्ञान हमें शिलालेख, व्याकरण और साहित्य से लग जाता है। भारतीय आर्यभाषा के विद्यार्थी को ग्रीक और लैटिन की अपेक्षा संस्कृत, प्राकृत आदि के उच्चारण की विशेष आवश्यकता होती है अतः हस नीचे वैदिक परवर्ती संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, पुरानी हिंदी और हिंदी के ध्वनि-समूह का संक्षिप्त परिचय देंगे जिससे हिंदी की ध्वनियों का एक- इतिहास प्रस्तुत हो जाय। हम पिछले प्रकरण में देख चुके हैं कि हमारी संस्कृत भाषा उस भारोपीय परिवार की कन्या है जिसका सुंदर अध्ययन हुआ है। 'इस परिवार की अनेक भाषाएँ थाज भी जीवित हैं, अनेक के साहित्य- चिह्न मिलते हैं और इन्हीं के आधार पर इस परिवार की आदि माता अर्थात् भारोपीय मातृभाषा की भी रूप-रेखा खींचने का यत्न किया गया है । अत: हिंदी को ध्वनियों का इतिहास जानने के लिये उस भारोपीय मात्मापा की ध्वनियों से भी संक्षिप्त परिचय कर लेना अच्छा होता है । यद्यपि दिभापा की ध्वनियों के विषय में मतभेद है तथापि हम अधिक विद्वानों द्वारा गृहीत सिद्धांतों को मानकर हो आगे बढ़ेंगे। विशेष विवाद यहाँ उपयोगी नहीं प्रतीत होता । उस मूल भारोपीय भाषा में स्वर और व्यंजन दोनों की ही संख्या अधिक थी। कुछ दिन पहले यह माना जाता था कि संस्कृत की वर्णमाला सबसे अधिक पूर्ण है। यही ध्वनियाँ थोड़े परिवर्तन के साथ मूलभाषा में रही होंगी पर अब खोजों द्वारा सिद्ध हो गया है कि संस्कृत की अपेक्षा मूलभापा में स्वर और व्यंजन ध्वनियाँ कहीं अधिक थीं।