पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/१७१

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1 १४६ भाषा-विज्ञान वैदिक ध्वनि-समूह अब हम तीसरे काल की ध्वनियों का विचार करेंगे । वैदिक ध्वनि-समूह, सच पूछा जाय तो, इस भारोपीय परिवार में सबसे प्राचीन है । उस ध्वनि-समूह में ५२ ध्वनियाँ पाई जाती हैं-१३ स्वर और ३९ व्यंजन स्वर-- नव समानाक्षर-अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, लू चार संध्यक्षर-ए, ओ, ऐ, औ व्यंजन- कंठ्य-क, ख, ग, घ, ङ तालव्य-च, छ, ज, झ, ब 'मूर्धन्य-~-ट, ठ, ड, ढ, ल, लह, ण दंत्य-त, थ, द, ध, न श्रोष्ठ्य-प, फ, ब, भ,म अंतस्य–य, र, ल, व 'ऊष्म-श, ष, स प्राणध्वनि-ह अनुनासिक--- (अनुस्वार) अथोप सोष्मवर्ण-विसर्जनीय, जिह्वामूलीय और उपध्मानीय । ऐतिहासिक तुलना की दृष्टि से देखें तो वैदिक भापा में कई परिवर्तन देख पड़ते हैं । भारोपीय मूलभाषा की अनेक धनियाँ उसमें नहीं पाई जातीं । उसमें (१) हस्य ४,४ और २ (२) दीर्घ 80 (३) संध्यक्षर i; bi, ku, su; ai, ei, oi, au, bu, bu; (४) स्वनंत अनुनासिक व्यंजन, (५) और नाद सोम Z का अभाव हो गया है । अभाव