पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/१७५

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१५० भाषा-विज्ञान . . संवृत A होने लगा था और ऋ तथा ल का प्रयोग कम और उच्चारण संदिग्ध हो चला था। (२) चौथे सूत्र में दो संध्यक्षर आते हैं-ऐ, औ। (३) पाँचवें और छठे सूत्रों में प्राण-ध्वनि है और चार अंत:स्थ वों का नामोद्देश मिलता है। अ, इ, उ, ऋ, लु, के क्रमश: बराबरी- वाले व्यंजन ह, य, व, र, ल हैं। स्वरों के समान ये पाँचों व्यंजन भी घोष होते हैं। (४) सातवें सूत्र में पाँचों अनुनासिक व्यंजनों का वर्णन है । यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य यह है कि स्वर और व्यंजनों के बीच में अंत:स्थ और अनुनासिक व्यंजनों का आना सूचित करता है कि इतनी ध्वनियाँ प्राक्षरिक भी हो सकती हैं। (५) इसके बाद ८, ९, १०, ११ और १२ सूत्रों में २० स्पर्श- व्यंजनों का परिगणन है। उनमें भी पहले ८, ९, १० सूत्रों में घोष व्यंजनों का वर्णन है; उन घोप-स्पर्शों में से भी पहले महाप्राण घ, झ, ढ, ध, भ पाते हैं तव अल्पप्राण ज, ब, ग, ड, द आते हैं, फिर ११ और १२ सूत्रों में अयोष स्पर्शों का वर्णन महाप्राण और अल्पप्राण के क्रम से हुआ है-ख, फ, छ, ठ, थ और क, च, ट, त, प। (६) १३ और १४ सूत्र में अघोष सोम वणों का उल्लेख है-श, प, स और ह । संस्कृत में ये ही घर्प-व्यंजन हैं। इन्हें ही ऊष्म कहते हैं। अंतिम सूत्र हल ध्यान देने योग्य है। बीच में पाँचवें सूत्र में प्राण ध्वनि ह की गणना की जा चुकी है । यह अंत में एक नया सूत्र रखकर अघोप तीन सोम ध्वनियों की ओर संकेत किया गया है। विसर्जनीय, जिवामूलीय, उपध्मानीय ये तीन प्राण-ध्वनि ह के ही अयोप रूप हैं। इस प्रकार इन सूत्रों में कम से चार प्रकार की ध्वनियाँ आती हैं.-पहले स्वर; फिर ऐसे व्यंजन जो सानंत स्परों के समानधर्मा (corresponding) व्यंजन हैं; तब स्पर्श-व्यंजन और अंत में धर्म-