पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/१७९

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१५४ भाषा-विज्ञान औ (अयो ) इन दो संध्यक्षरों का विकास भी पुरानी हिंदी में मिलता है। विदेशी भापाओं से जो व्यंजन आये थे वे सब तद्भव बन गए थे अंत में आधुनिक हिंदी का काल आता है। उनमें स्वर तो वे ही पुरानी हिंदी के बारह स्वर हैं, पर व्यंजनों में वृद्धि हुई है। क, रा' ख, ज, क के अतिरिक्त ऑ तथा श आदि अनेक ध्वनियाँ तत्सम शब्दों में प्रयुक्त होने लगी हैं। केवल ऋ, ष, न ऐसे व्यंजन हैं जो नागरी लिपि में हैं और संस्कृत तत्सम शब्दों में आते भी हैं पर वे हिंदी में शुद्ध उच्चरित नहीं होते; अतः उनका हिंदी में अभाव ही मानना चाहिए । इन हिंदी ध्वनियों का विवेचन पीछे हो चुका है। इस प्रकार भिन्न भिन्न काल की भारतीय आर्य भाषाओं के ध्वनि-समूह से परिचय कर लेने पर उनकी परस्पर तुलना करना, तुलना के आधार पर ध्वनियों के इतिहास का विचार करना भापा-शास्त्र का एक आवश्यक अंग माना जाता है। ध्वनि-विकारों का अथवा ध्वनियों के विकास का यह अध्ययन कई प्रकार से किया जा सकता है। (१) एक विधि यह है कि किसी भाषा की ध्वनियों का इतिहास जानने के लिये हम उस भाषा की पूर्वज किसी भापा की एक एक ध्वनि का विचार करके देख सकते हैं कि उस प्राचीन एक ध्वनि के इस विकसित भाषा में कितने विकार हो गए हैं। जैसे- हम संस्कृत की ऋ के स्थान में पाली में अ, इ, उ, रि, रु आदि अनेक ध्वनियाँ पाते हैं। प्राचीनतर संस्कृत भापा के मृत्यु, ऋपि, परिवृतः, ऋत्विज, ऋते, वृक्ष आदि और पाली के मच्चु, इसि, परिघुतो, इरिलिज, रिते, रुक्स आदि की तुलना करके हम इस प्रकार का निश्चय करते हैं। इसी प्रकार का अध्ययन भारत के अनेक वैयाकरणों ने किया था। वे संस्कृत की ध्वनियों को प्रकृति मानकर तुलना द्वारा यह दिखलाते थे कि संस्कृत की किस ध्वनि का पाली अथवा प्राकृत में कौन विकार हो गया है। इसी ढंग से कई विद्वान् श्रान हिंदी की ध्वनियों का संस्कृत से संबंध दिखाकर हिंदी ध्वनियों का अध्ययन करते हैं। (२) दूसरी विधि यह है कि जिस भाषा