पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/१८०

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ध्वनि और ध्वनि-विकार २५५ का अध्ययन करना हो उसकी एक एक ध्वनि को लेकर उसके पूर्वजों का पता लगाना चाहिए । यदि संस्कृत के ध्वनि-समूह का अध्ययन करना है तो उसकी एक एक धानि को लेकर प्राचीन भारोपीय भाषा से उसका संबंध दिखाने का यत्न करना चाहिए । उदाहरणार्थ--- संस्कृत की अध्वनि को लेते हैं। संस्कृत 'अ' भारोपीय अ, श्रे, ओ, म, न, सभी के स्थान में आता है। संस्कृत के अंबा, जन:, अस्थि, शतम्, मतः, क्रमश: पाँचों के उदाहरण हैं। ऐसा ऐतिहासिक अध्ययन वड़ा उपयोगी होता है । यदि ऐसा ही ऐतिहासिक विवेचन किसी आधुनिक आर्य भाषा का किया जाय तो केवल भारोपीय भाषा से नहीं, वैदिक, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश आदि सभी की ध्वनियों का विवेचन करके उनसे अपनी आधुनिक भारतीय आर्य भाषा की ध्वनियों की तुलना करनी होगी। इसी प्रकार हिंदी के ध्वनि-विकारों का ऐतिहासिक अध्ययन करने के लिये उसकी पूर्ववर्ती सभी आर्य भापाओं का अध्ययन करना आवश्यक है। अभी जब तक इन सब भाषाओं का इस प्रकार का अध्ययन नहीं हुआ है तब तक यह किया जाता है कि संस्कृत की ध्वनियों से हिंदी की तुलना करके एक साधारण इतिहास बना लिया जाता है, क्योंकि संस्कृत प्राचीन काल की और हिंदी आधुनिक काल की प्रतिनिधि है । दी- ध्वनियों का विचार तो तभी पूर्ण हो सकेगा जब मध्यकालीन भापाओं का सुंदर अध्ययन हो जाय । इस प्रकार तुलना और इतिहास की सहायता से भिन्न भिन्न कालों की ध्वनियों का अध्ययन करके हम देखते हैं कि ध्वनियाँ सदा विनि-विचार का एक सी नहीं रहती-उनमें विकार हुआ करते हैं। इन्हीं विकारों के अध्ययन से ध्वनि-विचार के सिद्धांत और नियम बनते हैं। पीछे हम ऐति- हासिक विवेचन कर चुके हैं। आगे हम ध्वनि-विकारों और उनके संबंधी नियमों का विचार करेंगे। प्रत्येक भाषा के ध्वनि-विकार की कुछ अपनी विशेषताएँ होती हैं 1 दूसरा अंग