पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/१८१

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खाद भावा-विज्ञान अतः सभी भाषाओं के ध्वनि-विकारों के सभी भेदों का वर्णन एक स्थान में नहीं हो सकता, तो भी कुछ सामान्य भेदों का परिचय यहाँ दिया जाता है अर्थात् हस्त्र स्वरों का दीर्घ हो जाना तथा दीर्घ का (१) मात्रा-भेद ह्रस्व हो जाना ध्वनि-विकार का एक सामान्य भेद है। जैसे- हस्व से दीर्घ हो जाना सं. अपभ्रंश हिदी भक्तम् भत्त भात खट्वा खट्टा पक्वः पक्कु पको, पका जिला जिम्मा जीभ मृत्युः मिच्चु मीच यह दीर्घ करने की प्रवृत्ति मराठी में इतनी अधिक बढ़ी हुई है कि संप्रदाय, मदन, रथ, कुल आदि जैसे तत्सम शब्द भी मराठी में सांप्रदाय, मादन, राथ, कूल आदि अर्धतत्सम रूप में पाए जाते हैं । पुर, वहिन, परख आदि के लिए मराठी पूर, बहीन, पारख आदि रूप प्रसिद्ध हैं। दीर्घ का हस्त्र हो जाना श्रपभ्रंश मराठी हिदी कीटक: कीड़ी किड़ा कीड़ा कीलकः कीलउ खिला खोला घोटक: घोड़ा घोड़ा वीपालयः दीवालउ (वं० दिवार) दीवाल यद्यपि यह तस्त्र करने की प्रवृत्ति आदर्श हिंदी की खड़ी बोली में नहीं है तथापि पूर्वी हिंदी, बंगला, मराठी, गुजराती आदि में प्रचुर स०