पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/१८४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ध्वनि और ध्वनि-विकार १५९ बायन, बैना सं० अभि+अञ्ज भीजना अपि भी अरघट्ट रहटा अतसी तीसी उपविष्ट बैठा अस्ति उपायन एकादश ग्यारह मध्य-स्वर-लोप जैसे राजन् में अ का लोप होने से ही राज्ञा अथवा राज्ञी बनता है, वैसे ही गम् धातु से जग्मुः, deksiterous से लै० dexter, दुहिता से धीदा, धीश्रा आदि में भी वही मध्य-लोप देख पड़ता है और जैसे मराठी में पल्डा, वराल्डा आदि मध्य-लोप वाले शब्द होते हैं वैसे हिंदी में भी बहुत होते हैं पर लिखने में वे हलंत नहीं लिखे जाते। इस लिपि का एक कारण यह भी है कि वास्तव में मध्य-स्वर का लोप नहीं होता है, केवल उसका उच्चारण अपूर्ण होता है; जैसे- लिखित रूप उच्चरित रूप इमली इमली बोलना बोलना गरदन गर्दन तरबूज तबूज समझना समझना अंत्य-स्वर-लोप मध्यकालीन-भारतीय-आर्य-भापा-काल के अंत में संस्कृत के दीर्च स्वर-आ, ई, ऊ प्राकृत शब्दों के अंत में पाए जाते थे पर